tag:blogger.com,1999:blog-45940686249192099132024-03-12T20:40:22.825-07:00Wings of Fancy''Solace of tacit emotion,
Sight beyond horizon,
A Soothing touch in pain,
The wings of fancy,a queer way
To seek the pearls in ocean.''Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.comBlogger45125tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-2506819043923021202022-03-03T07:01:00.000-08:002022-03-03T07:01:42.908-08:00नन्हें राही अभ्युदय को पहले दिन स्कूल भेजना इतना भावुक था कि भावनाएं कलम तक आ ही गयीं...
ओ ह्रदय अंश,ए मर्म विन्दु
ऐ मेरे राजदुलारे,
निकल रहे हो जीवन-पथ पर
ईश्वर तुम्हें संवारे।
मेरा आंचल, अपना आँगन,
था संसार तुम्हारा
टीका-काजल-मीठे भोजन
तक था प्रेम हमारा
तेरे ओझल होने पर
भर आये नैन हमारे
निकल रहे हो ...
साथ तुम्हारे हमको भी
अब दृढ़ होना होगा
वात्सल्य, मोह से उठकर
कर्तव्य को चुनना होगा
उड़ना सीखो विहग सुकोमल
आकाश अनन्त पुकारे
निकल रहे हो...
डग-मग होना लेकिन अब
माँ को नही बुलाना
कठिन राह है नन्हें राही
तुम सरल सदा बनकर चलना
जीवन्त हो रहे हैं अब
सोये स्वप्न हमारे
निकल रहे हो...
मेरा साया हर क्षण
तेरे ही संग रहेगा
जग को अच्छा मानव देना
मेरा लक्ष्य रहेगा
सही दिशा में रहना 'राघव'
चाहे बाधाएं घेरें
निकल रहे हो...
-विंदु
04-04-2019Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-63568009295803220632014-05-07T00:57:00.001-07:002014-05-19T17:43:25.603-07:00कथा नहीं यह सत्य है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-22300093925988341132014-04-29T03:27:00.001-07:002014-04-29T03:27:53.417-07:00जय हो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज जग की नाड़ियों में<br />
चाह जय की<br />
समाई इस तरह<br />
स्व भी रौंदा,पर को कुचला<br />
न रही पथ की खबर.<br />
<br />
अपरिमित,कंटीली राह के<br />
उस छोर पर<br />
जो चमकता लक्ष्य-जय<br />
बस! उसी पर नज़र<br />
पग पगी नीरस थकन<br />
<br />
लमकन बिखेरी<br />
शांति झुलसे,क्रांति उपजे<br />
जिस कौंध में<br />
बोध है<br />
जय हो वो कैसी?<br />
<br />
भुस पे लीपी सी<br />
कहीं ये जय न हो<br />
इन्द्रियों की तुष्टि,चादरमें ढके<br />
आत्मा के सजल से<br />
नैन न हों<br />
<br />
पहचान हो सत लक्ष्य की<br />
आवर्त,पथ के<br />
भास फिर शूल न हों<br />
प्रिय लगे<br />
खोखली जय-गूंज से परे<br />
स्नेह भीगी नाद नीरव<br />
<br />
-विन्दु</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-25096407124419106942014-02-25T22:58:00.000-08:002014-02-25T22:58:04.808-08:00योगी श्री अरविन्द:सॉनेट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सादर वन्दे वन्दनीय सुधी वृन्द।महानुभावों सर्वज्ञात है, गत 5 दिसम्बर को महर्षि अरविन्द का निर्वाण दिवस था। आपका साहित्य(सावित्री अभी छू भी नहींसकी),मेरे हृदय को बहुत सहलाता है।यद्यपि इस महान दार्शनिक,कवि और योगी के साहित्य की अध्यात्मिक ऊंचाई के दर्शन करने में भी समर्थ नहीं हूँ फिर भी सूरज को दिया दिखाने जैसा कार्य किया है,जो आपको निवेदित है।सादर निवेदन है कि मुझे जरुर अवगत कराएँ की मेरी समझ कहाँ तक सफल हो पाई है।<br />
<br />
सांसे इक अद्भुत लय धारा में बहती हैं;<br />
मम सर्वांगों में इसने दैवी शक्ति भरी<br />
पिया अनन्त रस,जस दैत्य की सुरा आसुरी।<br />
काल हमारा नाटक या स्वप्न बराती है।<br />
आनन्द से हर अंश मेरा अप्लावित है<br />
अब रुख बदला पुलकित,विघटित भाव तन्तु का<br />
हुआ अमूल्य,स्वच्छ हर्षोल्लासित पथ का<br />
जो त्वरित आगमन सर्वोच्च अगोचर का है।<br />
<br />
मैं रहा नहीं और,इस शरीर के अधीन<br />
प्रकृति का अनुचर,उसके शांत नियम का;<br />
नहीं रही मुझमें इच्छाओं की तंग फँसन।<br />
मुक्त आत्मा,असीम दृश्य का तदरूप हुआ<br />
ईश का सजीव सुखद यंत्र यह मेद मेरा,<br />
चिर प्रकाश का भव्य सूर्य यह जीव हुआ।<br />
<br />
<br />
('Transformation' नामक कविता का अनुवाद,जो श्री अरविन्द ने आध्यात्मिता से आए परिवर्तन को वर्णित करते हुए लिखी थी।<br />
<br />
-विन्दु</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-52737038187909171082014-02-25T22:37:00.000-08:002014-02-25T22:37:25.824-08:00भान करा दे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<a name='more'></a> भंवरों ने घेरा<br />
पहुंचाया अवसादों की गर्तो में<br />
संयोग बड़े ही <br />
सुखकर थे जिनके<br />
उनके ही वियोग भुजंग बने<br />
लगे डसने<br />
<br />
कौन शक्ति?<br />
जो हर क्षण<br />
अपनी ही ओर हमें<br />
खींच रही<br />
कल से खींचा,आज छुड़ाया<br />
जो आयेगा<br />
वो भी छुटेगा<br />
नश्वरता में इक दिन<br />
जीवन डूबेगा<br />
<br />
क्षणभंगुरता से<br />
हो विकल हृदय<br />
साश्वत खोज में<br />
जब भी तड़फा है<br />
मोहवार्तों ने आलिंगन कर<br />
जिज्ञासु तड़फ को मोड़ा है।<br />
<br />
खार उदधि की<br />
हर विंदु में<br />
रुचिकर रस का भास हुआ<br />
भास भास ही सिद्ध हुआ<br />
सत कुछ भी तो दिखा नहीं<br />
<br />
हे अविनाशी!<br />
अविनाशी कर के<br />
भान करा देमेरी तड़फ को<br />
जिसकी चिंगारी का<br />
कुछ बूंदों ने पल में नाश किया। <br />
<br />
-विन्दु</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-28541990907052692572014-02-10T05:14:00.000-08:002014-02-10T05:14:07.509-08:00बोल,भावों के विहंगम!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से,<br />
ऐ परिंदे!<br />
हिलोर आ जाती है<br />
स्थिर,अमूर्त सैलाब में,<br />
छलक जाता है<br />
चर्म-चक्षुओं के किनारों से<br />
अनायास ही कुछ नीर.<br />
<br />
हवा दे जाते हैं कभी<br />
ये पर तुम्हारे<br />
आनन्द के उत्साह-रंजित<br />
ओजमय अंगार को,<br />
उतर आती है<br />
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,<br />
अमृत की तरह.<br />
<br />
बिखरते हैं जब,<br />
सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग<br />
तेरे आ बैठने से<br />
चेतना फूँकती है सुगंधी<br />
जड़, जीर्ण और...अचेतन में.<br />
<br />
बोल,भावों के विहंगम!<br />
है कहाँ तेरा घरौंदा?<br />
कण-कण में या हृदय में,<br />
या फिर दूर...<br />
यथार्थ के उस यथार्थ में<br />
जो,कई बार अननुभूत रह जाता है.<br />
<br />
-विन्दु</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-77574734938862878132014-02-08T19:10:00.002-08:002014-02-08T19:10:29.099-08:00भोली आस्था<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक मासूम...<br />
तल्लीनता से जोर-जोर पढ़ रहा था<br />
क-कमल,ख-खरगोश,ग-गणेश<br />
<br />
शिक्षक ने टोका<br />
ग-गणेश! किसने बताया?<br />
बाबा ने...<br />
माँ और पिता को सब कुछ माना<br />
तभी तो सबसे बड़े देव हुए.<br />
<br />
नहीं,गणेश नहीं कहते<br />
संप्रदायिकता फैलेगी<br />
जिसे तुम समझो झगड़ा. .विवाद<br />
ग-गधा कहो बेटे.<br />
<br />
आस्था भोली थी<br />
बाबा के गणेश,मसीहा और अल्लाह से रेंग<br />
'गधे' में शांति खोजने लगी...<br />
<br />
-विन्दु</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-50068898881285822342014-02-01T15:57:00.000-08:002014-02-01T15:57:08.594-08:00कुंदन सी नीरव विजय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जय हिन्द!<br />
देश में गरीबी-उन्मूलन के नारे कितने भी गुंजार रहे हों लेकिन ग्रामांचलों की निर्धनता से तो आप सभी परिचित ही होंगे। कई बार होता ये है कि ग्रामीण समाज में जो सक्षम होते हैं अथवा यूँ कहें कि जो समाज के प्रतिनिधि होते हैं उनमें स्वयं को 'पालक' कहलाने की इच्छा इतनी बलवती होती है कि दुर्बल लोगों की सहायता की एक सीमा बांध देते हैं,यहाँ तक उनके पूर्ण अधिकार (जो सरकार द्वारा प्रदत्त हैं) भी उनतक नहीं पहुंचाते। इसी के चलते गरीब जनता इस सहायता को अपना अधिकार न समझ अभिजात्य वर्ग की दया समझने लगते हैं, क्योंकि यथास्थिति को जानते हुए भी उनमे आवाज उठाने का आत्मविश्वास नहीं रह पाता यदि आत्मविश्वास होता भी है तो उनकी कोई सुनता ही नहीं। आज समाज में जिसकी लाठी उसी की भैंस' है। इसी तरह की थोपी गरीबी को ढोते-ढोते इनमें से कई लोगों की आत्मा भी दुर्बल होती जाती है कि दूसरों की सहानुभूति की बाट जोहते रहते हैं। सहानुभूति की आस में सक्षम वर्ग की हाँ-हुजूरी करते अपना अस्तित्व भी उन्हें समर्पित कर देते हैं।<br />
<br />
इनसे हट के भी कुछ निर्धन जन ऐसे भी मुझे समाज में दिखे,जिन्होंने 'निर्धनता' को प्रारब्ध समझ स्वीकार किया। किसी की सहानुभूति की कोई आस नहीं, ईश्वर में अटल विश्वास ही विसंगत अधेरी राहों में उनके लिए रोशनी है। शोषण हुआ तो 'प्रभु तुम देखना' और कुछ अच्छा हुआ तो 'प्रभु तुम्हारी बाहें बहुत बड़ी हैं' सोच सदा पूर्ण संतुष्ट रहते हैं। न प्रभु से कोई अपेक्षा न किसी से,कर्तव्य से विमुखता तो किसी भी स्थिति में नहीं। ऐसे व्यक्ति की दिव्य आत्मा की लौ चर्म-चक्षुओं से तो जल्दी नहीं दीखती परन्तु हृदय से देखने पर उनकी अखण्ड मुस्कान में एक रक्षा कवच सा उनके पास स्पष्ट दीखता है।<br />
<br />
ऐसा ही संघर्ष शील एक व्यक्तित्व है,कुंदन। जिन्हें हम गरीब तो कह ही नहीं सकते क्योकि-<br />
'श्रीमाश्च्को यस्तु समस्त तोषः'। लेकिन भौतिक संसाधनों से अत्यंत वंचित। इन्हीं कुंदन पर आधारित एक सत्य-कथा लिखने का प्रयास किसी से प्रेरित हो कर किया था। अज्ञानतावश कथा में नाम वही के वहीकर दिए थे,इस अज्ञानता का फल इतना मीठा होगा...सोचा भी नहीं था।<br />
<br />
हुआ ये आदरणीय मित्रों जिन महानुभाव से प्रेरित होकर कथा लिखी थी,उन्हीं से साझा करने का मन हुआ। उन्होंने मेरे गाँव के विषय में कुछ जानने की जिज्ञासा भी जताई थी। उस सत्य-कथा से उन संत-हृदय महानुभाव का हृदय इतना पिघला की कुंदन के बारे में और जानकारी जुटा सहायता का हाथ बढ़ाया। परन्तु कुंदन जी अनायास ही किसी सहायता तो स्वीकार नहीं करते(क्योंकि उनके बच्चे मेरे छात्र रहे हैं,कभी उनकी दैनीय स्थिति<br />
देख छोटी-मोटी सहायता कर भी दी तो कुंदन ने हाथ जोड़कर मुझसे कहा-'बच्चों की आदत तुम तो न खराब करो,भगवान ने जितना दिया उतने में ही उन्हें रहना सिखाओ)।<br />
<br />
अब इसके आगे क्या था' फिर भी उन्होंने बड़े प्रयास के बाद समझ ही लिया कि यह सहायता,जो उन्हें विदेश की धरती से यहाँ सुलभ होने वाली है,वह भी एक प्रारब्ध ही है,ईश्वर की कृपा है...कुंदन ने स्वीकृति देदी। इस दौरान लम्बी चर्चा के बाद निर्धारित किया गया कि कुंदन को प्रति माह ₹2000 की सहायता दी जाएगी।<br />
<br />
जिन महात्मा ने यह दायित्व अपने ऊपर लिया है उन्होंने कहा-'यह कुंदन जी के लिए कोई खैरात नहीं होगी,बल्कि यह ( स्वीकार करना)उनका(कुंदन) हमारे ऊपर उपकार होगा।' बताते हुए मैं बहुत गदगद हूँ कि अगले 15 माह हेतु मेरे account में ₹30,000+ प्राप्त हो गये है,और एक बार कुंदन को दिए भी जा चुके हैं।<br />
कुंदन जी ने पैसे लेते समय मुझसे कहा था-'बिटिया,मेरा मुंह तो बोल नहीं पाता आत्मा ही बोलती है,लेकिन यदि यह भगवान का विधान है तो सबको खूब बताना,गुणगान करना।'<br />
<br />
यही वो वचन हैं जिनसे मैं यह लेख प्रस्तुत करने को प्रेरित हुई। वास्तव सहायता करने वाले कोई और नहीं इसी मंच के चिर-परिचित सदस्य हैं, जिन्होंने मेरी लेखनी पर इतना विश्वास किया। नाम है उनका आदरणीय <b>श्री विजय निकोर </b>(USA)<br />
<br />
यह धनराशि मात्र धनराशि नहीं बल्कि...विश्वास,सम्वेदना,करुणा,आदि अनेक मानवीय गुणों का समन्वय है। कुंदन के लिए ईश-साक्षात्कार तो मेरी लेखनी को विशेष पुरस्कार और...उन महानुभाव के विशाल हृदय का परिचय।<br />
<br />
इस विजय में कहीं 'स्वार्थ', 'लोकप्रियता' या 'मैं' की कोई भी प्रतिध्वनि नहीं...नीरव, लेकिन आत्म-संतुष्टि बिलकुल कुंदन सी।<br />
<br />
(मौलिक/अप्रकाशित)</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-27354709976405444742013-12-13T23:25:00.002-08:002014-02-01T15:57:59.811-08:00'मैं' को ध्येय बनाउँगी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कल्पना के मुक्त पर से<br />
सीमाओं तक जाऊँगी।<br />
दुश्वारियों से परे, निज<br />
अस्तित्व को मैं पाऊँगी।।<br />
<br />
पर हीन पंछी के हृदय<br />
वेदना ने गान गाये ।<br />
बह न पाए अश्क जो भी<br />
वो शब्द सुर ही बन गये।<br />
<br />
नभ सिन्धु तक सैर करके<br />
रश्मि मोद चुन लाऊँगी।।<br />
<br />
दुनिया के वीराने पथ<br />
दृष्टि नही टिकती जिनपर।<br />
संगीत सजाएंगे,उन<br />
राहों से आहें लेकर।<br />
<br />
खुश होंगे वो पत्थर दिल<br />
गीत वही जब गाऊंगी।।<br />
<br />
'मम'में'पर-दर्द'जोड़कर<br />
ऋण-ऋण धन बन जाएंगे।<br />
तुष्ट बनेंगे हम दोनों<br />
भोगी भी सुख पाएंगे।<br />
<br />
एक दिन सुख-राशि बनकर<br />
मिल 'अनन्त' में जाउंगी।।<br />
<br />
'मैं'नही व्यष्टि का द्योतक<br />
साहित्य बसा है इसमें।<br />
'मैं' की दिशा सही हो तो<br />
संसार सजेगा सच में।<br />
<br />
हर मैं' उन्नत होने तक<br />
'मैं' को ध्येय बनाऊँगी।।<br />
<br />
-विन्दु<br />
(मौलिक/अप्रकाशित)</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-35414400214942163282013-12-12T05:11:00.000-08:002013-12-13T23:01:57.401-08:00साहित्य की पहुँच कहाँ तक??<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज का समय अनेक विसंगतियों से जूझ रहा है। पूंजीवीदी विकास की अवधारण औरवैश्वीकरण नें समाज में गहरी खांइयां डाल दी हैं। सदियों से हमारे देश कीपहचान रहे गाँव,किसान हमारी अद्वितीय संस्कृति पर संकट के घनघोर बादलमंडरा रहे हैं। पूरी अर्थव्यवस्था एवं न्यायव्यवस्थ भ्रष्टाचारकी भेंट चढ चुकी है। संस्कृति जिसके बूते हमारे राष्ट्र की पताका विश्वमें फहराया करती थी,आज... पाश्चात्य के अन्धेनुकरण की दौड़ में रौंदी जारही है। जब सभी मनोरंजन के साधन उबाऊ सिद्ध हो रहे है,ईमानदार,नि:सहाय और आमआदमी की सुनने वाला कोई नहीं रहा। ऐसे अराजक और मूल्यहीन विकृत मंजर में दर-दर से ठुकराई दमन के हाशिएपर खड़ी आत्मा की अन्तिम शरणस्थली बचती है तो एकमात्र साहित्य! साहित्य का उद्गम अथवा साहित्य का अध्ययन। उद्गम के लिए साहित्य-धर्मिता धारित हर व्यक्ति तो होता नहीं ,तो बात टिक गई आकर अध्ययन पर। आज की साहित्य में ऐसी क्षमता है जो इस स्थिति में मानव-हृदय को सहलाने में सक्षम हो सके? ये एक यक्ष प्रश्न है।आज केसाहित्य में क्या ऐसे नि:सहाय पात्रों को स्थान मिलता है?क्या उन दमितआवाजों को उजागर कर सर सकता है जिनका सुनने वाला कोई नहीं? ऐसे कई प्रश्न रचनाशीलता के पल्ले में हैं।<br />
<br />
मुंशी प्रेमचंद ने कहाहै-''साहित्य की गोद में उन्हें आश्रय मिलना चाहिए जो निराश्रय हैं,जो पतित हैं,जो अनादृत हैं।'' साहित्य का मूल उद्देश्य हमारी संवेदना को विकसित करना है। पीछे नजर डाल के देखें तो महादेवी,शरतचंद्र चटर्जी का साहित्य पद्दलित महिलाओं के बारे में सोचने को बाध्य करता है,मैक्सम गोर्की का मजदूरों के बारे में। प्रेमचन्द्र के पढें को किसानों की दशा से मन उद्वेलित होता है,टैगोर जी का साहित्य हमारा चित्त अध्यात्मिकता की ओर खींचता है। क्या आज का साहित्य की भूमिका कुछ ऐसी ही है? इतिहास और हिंदी साहित्य साक्षी है कि जब-जब समाज में गिरावट,अर्थव्यवस्था में गिरावट,अनेकानेक संघर्ष उपजे हैं तब-तब उत्कृष्ट साहित्य सृजित हुआ है। आदिकाल,मध्यकाल हो या उपनैवेशिक काल,अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। इतिहास में कदाचित् पहली बार ऐसा हो रहा है जब साहित्य औरसमाज दोनो की अधोगति का एकाकार हो रहा है,दोनो में एक साथ गिरावट आ रहीहै। <br />
<br />
आज जब साहित्य में संस्कृति,आम-आदमी की स्थिति और अवहेलि आवाज कोउजागर करने का समय है तब साहित्य महानगरीय और विलासिताओं के बोध से भरापड़ा है। मानो मनुष्य का विवेक और साहित्य-धर्मिता चंद समृद्ध शहरों तक ही सिमट कर रह गया हो। साहित्यकार विदेशों के चित्र,समृद्धियों के चित्र अपनी पहुंच प्रदर्शित करने के लिए प्रस्तुत करने लग गये हैं। आखिर कारण क्या है जो 100 वर्षों से अधिक हो गया है भारतीय साहित्यकार नोबेल पुरस्कार पर अधिकार नहीं कर सका।<br />
<br />
ऐसी बात नहीं कि आज उत्कृष्ट साहित्य-धर्मिता मृतप्राय हो गई है लेकिन कमी अवश्य आई है। वह कम परन्तु विशिष्ट रचना शीलता सत्ता-क्षेत्रों और चकाचौंध से दूर है और चुप-चाप अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए रचना कर्म कर रहे हैं। उसे प्रकाश में लाने वाले शायद कम ही हैं ,क्योंक जिसकी लाठी उसकी भैंस। स्वार्थ और स्वयं लोकप्रिय होने की अतिशय भूख अध्ययन,आंकलन और गुणवत्ता को निगल रही है।<br />
<br />
मुझे लगता है जो यत्र-तत्र कुछ संस्कृति,संवेदना और सज्जनता जीवित है वह इसी साहित्य की वजह से ही है,भेले ही ऐसा साहित्य पुरस्कार अधिकारी कभी न पाए। ऐसे विलक्षण समय में साहित्य की बाहुल्यता,उत्तम शिल्प,खोखली लोकप्रियता से गदगद होने की बजाय पथ-प्रदर्शित करने वाले साहित्य को प्रकाश में लाने में सार्थकता है। कहा गया है-''एक सफल राजनीति अर्धशताब्दी में भी जन-कल्याण के लिए जो नहीं कर सकती वह उत्कृष्ट साहित्य की एक साधारण सी पंक्ति कर देतीहै।साहित्य के सृजन को कोई मिटा नहीं सकता।'' <br />
<br />
समाज में युवाओं के मनोरंजन के बहुतायत साधनउपलब्ध हैं,परन्तु मनोमंथन के लिए प्रेरित करने वाला एकमात्र उत्तमसाहित्य ही है।महान विद्वान आस्कर वाइल्डि ने कहा है-''Literature always anticipates life.It does not copy it or entertain it,but moulds it to its purpose''इसलिए साहित्य-धर्मिता विकसित करने से पहले मुझे लगता है,साहित्य की उत्कृष्टता और उद्देश्य की पहचान करने की नितान्त आवश्यकता है। सादर शुभेच्छावन्दना</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-49868217682489681362013-11-22T03:37:00.000-08:002013-11-22T04:06:35.454-08:00आजादी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
माधव अपने चाचू के साथ चिड़ियाघर घूम रहा था। बीच में ही चाचू सेघर चलने की जिद करने लगा।<br />
चाचू ने कहा- ''बेटा इतनी दूर आए हैं,पूरा ज़ू देख तो लें। जानवरो कीगतिविधियां तो तुम्हे बहुत अच्छी लगती है। बड़ी उत्सुकता से देखा करतेथे,आज क्या हुआ तुम्हे?''<br />
<br />
माधव ने तेवर तीखे करते हुए कहा-''चाचू मैं और आप इन कटघरों में बन्द होता तो?'<br />
<br />
'चाचू- ''अरे बेटा! पशुओं से खुद की तुलना क्यों कर रहे हो?''<br />
माधव-''चाचू,पशु बोल नहीं पाते तो क्या उनके हमारे तरह मन भी नहीं होता?उनका तो स्वभाव ही आजाद रहना होता है।''<br />
<br />
उसके चाचू उसकी जिद पूरी करते हुए घर की ओर चल दिये।रास्ते में दोनो चुप थे। काफी देर बाद चुप्पी तोड़ते हुए माधव ने कहा-<br />
''आपको याद है चाचू,सरकस में बेचारे पशु कैसे इशारे पर करतब दिखा रहेथे।''<br />
चाचू-''हाँ बेटा यही मनुष्य की कला है जो जानवर को भी...''बीच मे ही काटते हुए माधव बोला-<br />
''क्या कला,अबोध पशुओं की स्वतन्त्रता सेखिलवाड़ करें।पैसे कमाएं और हम लोग देख कर मस्ती करते रहें।''<br />
<br />
इसबार उसके चाचा शान्त रहे।अभी दोनो घर पहुंचे नहीं थे कि अचानक एक मदारी दिख गया। उसके चाचा नेसोचा अब माधव पुरानी बात भूल गया होगा। अभी बच्चा ही तो है। यही सोच करचाचा ने कहा-<br />
''माधव बंदरिया नाचते हुए देखोगे? वह देखो मदारी।"<br />
माधव ने तपाक से उत्तर दिया-''चाचू अभी मेरे गले में जंजीर पड़ी होती,इसबंदरिया की तरह तब भी आप इतने ही खुश होते?''<br />
<br />
तब तक दोनो घर के करीब पहुंच चुके थे। माधव दौड़ा-दौड़ा गया अपने पट्टे को उड़ा दिया। जब तक सब रोकते उसने अपने जिम्मी नाम के प्यारेकुत्ते को भी मुक्त दिया।उसने सबकी डांट चुपचाप खुशी से सुन ली। अब माधव खुद को स्वतन्त्र महसूसकर रहा था। बन्धन मुक्त कर देने के बाद भी माधव के प्यारे पट्टूं औरजिम्मी रोज माधव से मिलने आते हैं।<br />
<br />
-वन्दना(साखिन,हरदोई)</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-28831977290050178602013-09-27T17:37:00.001-07:002013-09-27T17:37:14.449-07:00बत्तख और भैंस/बाल कहानी तालाब की लहराती लहरों में किलकारियां करती हुई भैंस को देख पास में तैरती बत्तख ने पूछा- ''बहन आज बहुत खुश लग रही हो,क्या बात है?''<br />
भैंस-''सच्ची बहन,आज मैं बहुत खुश हूं।''<br />
बत्तख-''अरे! क्या हुआ,मुझे भी बताओ।''<br />
भैंस-' बहन,दो दिन पहले मैं कानपुर गई थी,जहां गंगा में नहाया,तब से मेरे रग-रग में जल की गंदगी और बदबू समाई हुई थी। आज सुन्दर हरियाली से घिरे इस छोटे से तालाब में नहाकर मानो मेरा मन तक धुल गया हो। सुहानी पुर्वइया...ऐसा लग रहा है जल नृत्य कर रहा हो।''<br />
बत्तख ने कहा-अच्छी बात है बहन तुम्हे यह वातावरण अच्छा लग रहा है,लेकिन गंगा तो भारत की पवित्रतम् नदी है। इसके जल के आचमन से ही अपवित्रता धुल जाती है। और तुम गंगा की गंदगी इस छोटे से पोखर में धुलने की बात कर रही हो! गंगाजल कभी अपवित्र नहीं होता बहन।''<br />
भैंस की पीठ पर बैठा बगुला बीच में बोल पड़ा-''जैसे आपकी धवलता...कभी कम नहीं होती,चाहे कीचड़युक्त पानी में तैरो या स्वच्छ जल में।''<br />
बत्तख गर्व से मुस्कराई परन्तु भैंस ने कहा-''बगुले भाई, मैं काली हू, मुझे दोष भी पहले दिखते है,मनन करने की क्षमता मुझमें कहा! सतही तौर पर मुझे जो आभास हुआ सो बताया।''<br />
बत्तख और बगुला दोनो यह सोचकर शांत हो कि गए गंगा जी के सम्पर्क में सभी विवेकशील ही तो नही आते हैं,जो इनकी अखण्ड पवित्रता को समझे। मानव अपने स्वार्थ के लिए स्वच्छता और शुद्धता को भी कुचल रहे हैं। इससे हम पशु भी त्रस्त हैं।<br />
<br />
<br />
<br />
-वन्दना तिवारीVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-39568723713099594012013-09-21T10:05:00.001-07:002013-09-21T10:05:46.476-07:00गौरव या हीनता??सादर वन्दे सुहृद मित्रों...<br />
हिन्दी दिवस...हिन्दी पखवाड़ा...फिर धीरे धीरे जोश टांय टांय फिस्स!<br />
शुभप्रभात,शुभरात्रि,शुभदिन सभी को good morning,good night & good day दबाने लगे।<br />
आज बच्चों के लिए (क्योंकि बच्चे हिन्दी के शब्दों से परिचित नहीं या फिर उनका अंग्रेजी शब्दकोष बढाने के लिए) बेचारे बुजुर्गों और शुद्ध हिंदीभाषी लोगों को भी अंग्रेजी बोलने के लिए अपनी जिव्हा को अप्रत्याशित ढंग से तोड़ना मरोड़ना पड़ता ही है। उन्हें गांधी जी का वक्तव्य कौन स्मरण कराए जो कहा करते थे-<br />
''मैं अंग्रेजी को प्यार करता हूं लेकिन अंग्रेजी यदि उसका स्थान हड़पना चाहती है,जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं सख्त नफरत करूंगा।''<br />
अध्ययन का समय ही कहां है अब किसी के पास जो महापुरुषों के सुवचनों संज्ञान में आये। ईश्वर ही बचाए समाज को।<br />
14सितम्बर 1949 को संविधान सभा मे एकमत होकर निर्णय लिया गया कि भारत की राजभाषा हिन्दी होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए ''राष्ट्र-भाषा प्रचार समिति वर्धा'' के अनुरोध पर 1953 से समपूर्ण भारत में 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज,राष्ट्रीय पशु,पक्षी आदि की तरह राष्ट्रीय भाषा भी होनी चाहिए,लेकिन किताना दुखद है कि हम हिंदी को देश की प्रथम भाषा बनाने में सक्षम नहीं हो पाए हैं।<br />
हिंदी भारत की प्रथम भाषा बने भी तो कैसे जब देश के प्रथम नागरिक तक आज हिंदी को नकार अंग्रेजी में सम्बोधन करते हैं,जहां के नागरिक हिंदी के माध्यम से शिक्षा दिलाने में हीनता का अनुभव करते हैं,रिक्शाचालक भी रिक्शे पर अंग्रेजी में लिखवाकर छाती चौड़ी करते हैं। ज्यादा क्या कहें हमारे संविधान में ही देश की पहचान एक विदेशी भाषा में है-India that is Bharat'. विचारणीय है जहां वैश्विक मंच पर सभी देश अपनी भाषा के आधार पर डंका बजा रहे हों और अकेले हम...विदेशी भाषा में सस्वयं का परिचित करा रहे हों,तो हमे गुलाम अथवा गूंगे देश का वासी ही कहा जाएगा। विद्वानों ने कहा है कि जिस देश की कोई भाषा नहीं है वह देश गूंगा है। ऐसा सुनकर,अपना सिक्का खोंटा समझ हमें सर ही झुका लेना पड़ेगा। आज चीन जैसे देश राष्ट्र भाषा का आधार लेकर विकास की दौड़ में अग्रसर हैं,और भारत में खुद ही अपनी भाषा को रौंदा जा रहा है। अंग्रेजी शिक्षितजन अपनी भाष,संस्कृति,परिवेश और परम्पराओं से कटते जा रहे हैं और ऐसा कर वे स्वयं को विशिष्ट समझ रहे हैं।<br />
कैसी विडम्बना है आज हीनता ही गौरव का विषय बन गई है। ऐसी दशा में मुक्ति भला कैसे सम्भव है? आज अंधी दौड़ में हम भूल गये हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी अपनी मात्रभाषा हिंदी के बूते शिकागो में विश्व को भारतीय संस्कृति के सामने नतनस्तक कर दिया। बहुत पहले नहीं 1999 में माननीय अटल बिहारी बाजपेई(तत्कालीन विदेश मंत्री) ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में सम्बोधित कर हमारे राष्ट्र को गौरान्वित किया था। अंग्रेजी के पक्षधर गाँधी जी के सामने अपनी जिव्हा दमित ही रखते थे। अंग्रेजी के बढते अधिपत्य और मातृ-भाषा की अवहेलना के विरुद्ध 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आवाज उठाई गई थी। श्री केशवचन्द्र सेन, महर्षि दयानन्द सरस्वती,महात्मा गाँधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास,डा. राममनोहर लोहिया आदि देशभक्तों का एक स्वर मे कहना था-''हमें अंग्रेजी हुकूमत की तरह भारतीय संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को यहां से निकाल बाहर करना चाहिए।'' ये हिंदी सेवी महारथी जीवन के अन्तिम क्षणों तक हिंदी-अस्मिता के रक्षार्थ संघर्ष करते रहे।<br />
दुरभाग्वश वे भी मैकाले के मानस पुत्रों के मकड़जाल से हिंदी को मुक्त नहीं करा सके और राजकाज के रूप में पटरानी अंग्रेजी ही बनी हुई है,जबकि भारती संविधान इसे सह-भाष का स्थान देता है। <br />
मन्तव्य अंग्रेजी या किसी भाषा को आहत करने का नहीं हिंद-प्रेमियों बस हम भविष्य की आहट पहचानें, अंग्रेजी अथवा किसी भी विदेशी भाषा को जानें,सम्मान करें परन्तु उसे अपनी अस्मिता या विकास का पर्याय कतई न समझें। वास्तव में राष्ट्रभाषा की अवहेलना देश-प्रेम,संस्कृति और हमारी परम्पराओं से हमे प्रछिन्न करती है। अपनी मातृ-भाषा का प्रयोग हम गर्व से करें,हिंदी के लिए संघर्ष करने वाली मनीषियों की आत्माओं का आशीर्वाद हमारे साथ है।<br />
जय हो!<br />
सादर<br />
-वन्दना Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-50795948877905016862013-09-05T09:34:00.001-07:002013-09-05T09:34:00.429-07:00शिक्षक के सम्मान मे गिरावट या वृद्धि??स्वप्रज्ञा बुद्धि बलेन चैव,<br />
सर्वेषु नृण्वीय विपुलम् गिरीय।<br />
अज्ञान हंता,ज्ञान प्रदोय: त:<br />
सर्वदोह गुरुवे नमामि।।<br />
<br />
आज तकनीकी युग में कम्प्यूटर द्वारा शिक्षा क्षेत्र में एक नई क्रान्ति प्रज्ज्वलित हुई है,परन्तु नौनिहालों के मन में ज्ञान ज्योति प्रदीप्त करने के लिए शिक्षक का स्थान महत्वपूर्ण है। माता-पिता के पश्चात बालकों को सही दिशा देने व उनका सर्वांगीण विकास करने में शिक्षक प्रमुख भूमिका है। शिक्षक सामाजिक परिवेश की वह गरिमामयी मूर्ति है जो हम सभी में ज्ञान का प्रकाश फैलाकर नैतिकता व गतिशीलता को गति प्रदान करते हैं।<br />
ऐसे देवस्वरूप व्यक्तित्व को शत्-शत् नमन!<br />
वस्तुत: गुरु-शिष्य का सम्बन्ध सदैव प्रकाशमान रहता है,शिक्षार्थी के हृदय में अपने गुरु के प्रति प्रेम व सम्मान सदैव प्रवाहमान रहता है फिर भी शिक्षक-दिवस इस पवित्र सम्बन्ध को मांजने का दिवस है,जिंदगी की भागमभाग में धूमिल हुए रिशते को पुन: स्वच्छ एवं सौम्य बनाने का दिन है।<br />
अतीत में गुरु-शिष्य सम्बन्ध बड़ा ही दिव्य हुआ करता था,गुरु का स्थान साक्षात् वृह्म स्वरूप था,गुरु के आदेश-निर्देश मन्त्र सदृश्य थे। डा. राधाकृष्णनन जी कहा करते थे कि मात्र जानकारी देना ही शिक्षा नहीं है अपितु शिक्षा द्वारा व्यक्ति के कौशल,बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का विकास करना महत्वपूर्ण है। करुणा,प्रेम,विनय और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।<br />
अब प्रश्न उभरता है कि आज के बदलते परिवेश में उनका वक्तव्य कहां तक प्रासंगिक है? गुरु-शिष्य के सम्बन्ध मे कहां तक परिवर्तित हुआ है? अर्थयुग का प्रभाव इस रिश्ते पर पड़ा है अथवा नहीं?<br />
प्रतिस्पर्धा के चलते इस बन्धन में कुछ कमजोरी अवश्य आयी है परन्तु इसका उत्तरदायी कहीं न कहीं शिक्षक भी है। शिक्षक विद्यालय ही नहीं पूरे समाज का आदर्श होता है,उसके नैतिक गुण,सुदृढ़ चरित्र से उत्तम समाज की आधारशिला निर्मित होती है। आज के अर्थ-बाहुल्य कलयुग में क्या कहा जाय!न शिक्षक को न अपने दायित्व की सुधि है न ही शिष्य को अपनी गरिमा की। यत्र-तत्र तो इस पवित्र सम्बन्ध की हत्या भी हो जाती है,परन्तु शिक्षक दिवस की औपचारिकताओं में कोई कमी नहीं।<br />
ग्रामीण क्षेत्र के प्रथमिक विद्यालयों पर नजर डालें तो कईबार शिक्षा की विदीर्ण तस्वीर सामने आती है। विद्वान और योग्य शिक्षक भी अपने कर्तव्यों से गिरते जा रहे हैं। प्राय: 'यहां के बच्चे डी.एम.नहीं बन जाएंगे चाहे जितना सर पटक दें' जैसी उक्ति सुनने को मिल जाती है। वहां के छात्रों के शिक्षण स्तर की जो बात करें बड़ा ही दुखद है।<br />
इस विलक्षण समय के चलते बुराइयों का कद अवश्य बढ़ा है लेकिन अच्छाइयां भी मृतप्राय नहीं हुई हैं। उतनी ही अच्छाई के बूते राष्ट्र को विश्वफलक पर विकास की राह में गतिशीलता प्राप्त है। इस अराजक समय में भी विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि अनैतिकता चाहे जितनी सीमाएं पार कर गई हो,अस्मिता कितनी भी विस्मृत हो रही हो परन्तु गुरु शिष्य का सम्बन्ध आज भी बहुत ही गरिमा मय और दिव्य है बशर्ते हम शिक्षकों की रगों में उच्च नैतिक गुण,दृढ चरित्र और निष्ठा का लहू प्रवाहित होता हो। किसी विद्वान ने व्यर्थ ही नहीं कहा है-<br />
<br />
''चुकता है कर्तव्यों से ही,<br />
निज सम्बन्धों का कर्जा।<br />
जो जैसा कर्तव्य निभाता,<br />
पाता वैसा दर्जा।।''<br />
अत:शिक्षक दिवस वह अवसर है जब शिक्षक दृढसंकल्पित होकर अज्ञान तम को मिटाने का बीड़ा उठाएं और छात्र भी गुरुओं को केवल उपहार ही नहीं बल्क सम्मान से प्रतिष्ठित करें। पुन: हमें अस्तित्व प्रदान करने वाले गुरुओं और शिष्ट शिक्षकों की बार-बार वन्दना।<br />
सादर<br />
शुभ शुभ Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-80198154826032692132013-08-27T10:39:00.001-07:002013-08-27T10:39:23.513-07:00हे कृष्ण!जय श्री कृष्ण!<br />
जन्माष्टमी के उपलक्ष में एक प्रयास निवेदित है,कृपया समीक्षा करें-<br />
<br />
त्याग,प्रेम अवतार श्याम<br />
प्रेम रीति तो सिखाइये।<br />
बृज-गोपियों सा त्याग रस<br />
कलिकाल में भी डालिये।।<br />
<br />
लोक-हित छोड़ा मंजु बृज<br />
समोद मथुरा को धाए।<br />
बही अश्कों की धार,जब <br />
मेघ भावना के छाए।<br />
<br />
तुमको भी जीता जिसने<br />
हमें नीति वह सिखाइये।।<br />
<br />
ज्ञान में ही मग्न ऊधौ<br />
प्रेम भाव थे न मानते।<br />
पर भक्त के विकार कृष्ण<br />
चुन-चुन सब हैं निकालते।<br />
<br />
उद्धव सम परोक्ष ज्ञान <br />
अब हम सबको दिलाइये।।<br />
<br />
है प्राप्ति में सुसुप्त प्रेम<br />
विरह में जाग जाता है।<br />
प्रेमी,इस वियोग में तो<br />
ठौर-ठौर दिख जाता है।<br />
<br />
डाँट मारी गोपियो ने<br />
मत ये योग सिखलाइये।।<br />
<br />
यदि कण-कण समाया श्याम,<br />
उन्हें गिनके बताइए।<br />
हम एक से ही मर मिटीं<br />
वाणी-बाण न चलाइये।<br />
<br />
जो ज्ञान को भी मात दे<br />
वो ही प्रीति सिखलाइये।।<br />
बृज-गोपियों सा त्याग-रस...<br />
-विन्दुVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-37527209513172680022013-08-17T00:26:00.001-07:002013-08-17T00:26:37.895-07:00*परिवर्तन*परिवर्तन है सत्य सदा<br />
अपनाना इसको सीखे।<br />
इसमे ही है नव-जीवन<br />
नूतन पथ बुनना सीखें।।<br />
<br />
नूतनता खुशियों की जननी<br />
उत्सव नित्य मनायें हम।<br />
खुश रहकर कुसमय काटें,<br />
समय से न कट जाएं हम।<br />
<br />
जीवन-रंग सजाने को<br />
नयन-अश्रु पीना सीखें।।<br />
<br />
शोक,हर्ष,उत्थान-पतन<br />
हमें तपा कुन्दन करते।<br />
अगम सिन्धु की झंझा में<br />
कर्म सदा नौका बनते।<br />
<br />
निष्कामी आराधक बन<br />
जग-वन्दन करना सीखें।।<br />
<br />
प्राणि मात्र से प्रीति करें<br />
प्रेम पात्र जो बनना है।<br />
अब जग जा,ओ रे मन!<br />
मग यदि सुगम बनाना है।<br />
<br />
प्रीति सुमन की चाह अगर<br />
जड़ सिंचित करना सीखें।।<br />
परिवर्तन है..<br />
-विन्दु<br />
सादर<br />
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-44635910333276392472013-07-18T01:45:00.001-07:002013-07-18T01:45:58.184-07:00'हो भान तो वह'(बहर-2122 2122 2122)<br />
<br />
लक्ष्य क्या जो खोजते हम दौड़ते हैं।<br />
है कहाँ ये आज तक ना जानते हैं ।।<br />
<br />
ढूंढ साधन,साधने को लक्ष्य सोंचा<br />
ना सधा ये, सब स्व को ही रौंदते हैं।<br />
<br />
जग छलावे में भटकते इस तरह हम<br />
शांति के हित शांति खोते भासते हैं।<br />
<br />
हो समर्पण पूर्ण या लब सीं लिए हों,<br />
क्या शिलाए भी प्रेम को सीलते है ?<br />
<br />
ना पहुंचू पर मुझे हो भान तो वह<br />
तब बढेंगे, आज तो बस खोजते हैं।।<br />
-विन्दुVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-78039967419758774992013-05-29T10:51:00.001-07:002013-05-29T10:51:49.949-07:00काँपते उरसंवेदना के <br />
शुष्क तरु सानिध्य में,<br />
पुष्प प्रीति के,<br />
ढूंढे जा रहे हैं आज।<br />
पत्थरों को ईश मान;<br />
मंदिरों में घट बंधा,<br />
घट-जलधार के पास से,<br />
पिपासाकुल खग<br />
भगाए जा रहे हैं।<br />
प्रसाधन-जनित<br />
यज्ञशाला की अग्नि में, <br />
आँच के भय से <br />
सब आहुति घटा रहे हैं।<br />
सुना है,देखा नहीं<br />
भगवान औ भूत दोनों को<br />
पर...ईशास्था से अभय<br />
को नकार<br />
भूत में विश्वास कर <br />
उर काँपते हैं आज।<br />
-विन्दु Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-69447208931937577702013-05-08T07:40:00.001-07:002013-05-08T07:40:42.778-07:00युगदृष्टा गुरुदेवकल (7 मई) गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर का जन्मदिवस था और 2013 उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने का 100वां वर्ष है। मन में आया कि एक छोटा सा परिचय अपने ब्लाग में संग्रहीत करूं। क्योंकि मुझे लगता है कोई भी भारतीय पुस्तकालय,किसी भी भारतीय का अध्ययन गीतांजलि के बिना अपूर्ण है।<br />
'गुरुदेव' की उपाधि से सुविख्यात,कवि,साहित्यकार,दार्शनिक,महान सन्त,भारतीय साहित्य में एकमात्र नोबेल पुरस्कार विजेता वन्दनीय रबीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति में नई चेतना फूंकने वाले युगदृष्टा थे। सर्वविदित है कि गुरुदेव का जन्म ७मई,१८६१ में कोलकाता में हुआ था। बहुत महत्वपूर्ण है कि टैगोर की दो रचनाएं दो राष्ट्रगान बनीं-<br />
जन गण मन-भारत<br />
आमार सोनार बंगला-बंगलादेश<br />
बचपन से ही उनकी साहित्यिक प्रतिभा के दर्शन जनमानस को होने लगा था। उनकी पहली लघुकथा,जो 8 वर्ष की अवस्था में लिखी गई थी,1877में प्रकाशित हुई,जब वे मात्र 16 वर्ष के थे। धीरे धीरे उनकी परिपक्वता के साथ उनके सृजन का जाल भी विश्व में फैलने लगा।<br />
संसार की समस्त प्रतिभा,साहित्य,दर्शन और चित्रकला आदि का आहरण कर मानो उन्होनें अपने अन्दर समाहित कर लिया था। पिता के ब्रह्म समाजी होने के कारण वह ब्रह्मसमाजी तो थे पर अपने रचना कर्म से उन्होनें सनातन धर्म को भी खूब सींचा।<br />
ईश्वर और मनुष्य का साश्वत उनकी रचनाओं में अनेकानेक तरह से प्रतिबिम्बित होता है।<br />
साहित्य की शायद ही कोई विधा गुरुदेव की रचनाओं मे शामिल न हो,कविता,गान,कथा,उपन्यास,नाटक,शिल्परचना सबकुछ लेखनी से तराशा। प्रमुख रचनाएं-<br />
गीतांजलि,गीताली,गीतमाल्य,गोरा,साधना,शिशुभोलानाथ आदि आदि अनेक हैं।<br />
प्रकृति के सानिध्य में रहने के शौक ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की। फिर शान्तिनिकेतन को दृढता प्रदान करने के लिए टैगोर ने देशभर में नाटकों का मंचन कर धन संग्रहीत किया। गुरुदेव द्वार रचित 2230 गीतों का परिणाम रवीन्द्र संगीत है। अलग-अलग रागों मे प्रस्तुत उनके गीत आभास कराते हैं मानों गीतों की रचना राग के लिए ही की गई हो।<br />
दर्शन की बात करें तो टैगोर ने अपने दर्शन में मानवता को सर्वोच्च स्थान दिया और राष्ट्रवाद को दूसरे पावदान पर रखा। विलक्षण बात है कि जीवन के अन्तिम दिनों में,जब कला के प्रति रुझान सुस्त होने लगता है,तब गुरुदेव ने चित्रकारी में पदार्पण किया और महारत हासिल की।<br />
1910में लिखी 'गीतांजलि' का अंग्रेजी अनुवाद महान ब्रिटिश कवि w.b.yeats के पास 1912 में पहुंचा,और यीट्स ने पुस्तक का संक्षिप्त परिचय लिखा। अगले साल ही करिश्मा हो गया जब गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार विजेता घोषित किया गया।टैगोर के साथ ही भारत का साहित्यिक ध्वज विश्वाकाश में लहलहा उठा। पुस्तक अदद प्रेम,दर्शन,प्रकृति और अध्यात्म का एक मिला जुला सा अनुभव है। एक ओर प्रेम की तलाश में डोलती एक करुण पुकार है तो दूसरी ओर मानवीय गरिमा,जिजीविषा और उत्थान का निर्भीक और स्पष्ट आह्वाहन है।कुछ गीत जिनने मेरे हृदयपटल पर गहरी छाप छोड़ी-<br />
SONG-18<br />
''Clouds heap upon clouds and it darkens.<br />
Ah,love,why dost thou let me wait outside at the door all alone?<br />
In the busy moments of yje noontide work I am with the crowd,but on yhis dark lonely day it is only for thee that i hope.<br />
If thou showest me not thy face,if thou leavest me wholly aside,know not how I am to pass these long rainy hours.<br />
I keep gazing on the far-away gloom of the sky,and my heart wanders wailing with the restless wind.'' <br />
<a href="http://hindigitanjali.blogspot.com/2010/09/44.html?spref=bl">हिन्दी गीतांजलि: गीत 44 : जगते आनंद-यज्ञे आमार निमंत्रण</a>: जगत के आनंद-यज्ञ में मिला निमंत्रण। धन्य हुआ, धन्य हुआ, मेरा मानव-जीवन। रूपनगर में नयन मेरे घूम-घूमकर साध मिटाते, कान मेरे गहन सुर...<br />
SONG-49<br />
You came down from your throwne and stood at my cottage door.<br />
I was singinf all alone in a corner,and the melody caught your ear.<br />
You came down and stood at my cottage door.<br />
Masters are many in your hall,and songs arre there at all hours. But the simple carle of this novice struck at your love. One plaimtive little strain mingled with the great music of the world,and with a flower for a prize You came down...<br />
<a href="http://hindigitanjali.blogspot.com/2011/06/58.html?spref=bl">हिन्दी गीतांजलि: गीत 58 : जीवन जखन शुकाये जाय</a>: जीवन जब लगे सूखने करुणा-धारा बनकर आओ। सकल माधुर्य लगे छिपने, गीत-सुधा-रस बरसाओ। कर्म जब लेकर प्रबल आकार गरजकर ढक ले चार दिशाऍं हृदय-प्रांत ...<br />
<a href="http://hindigitanjali.blogspot.com/2012/03/66.html?spref=bl">हिन्दी गीतांजलि: गीत 66</a>: वहन कर सकूँ प्रेम तुम्हारा ऐसी सामर्थ्य नहीं। इसीलिए इस संसार में मेरे-तुम्हारे बीच कृपाकर तुमने रखे नाथ अनेक व्यवधान- दुख-सुख के अनेक ...<br />
<a href="http://hindigitanjali.blogspot.com/2012/04/67.html?spref=bl">हिन्दी गीतांजलि: गीत 67</a>: हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज लेकर हाथों में अरुणवर्णी पारिजात। सोई थी नगरी, पथिक नहीं थे पथ पर, चले गए अकेले, अपने सोने के रथ पर- ठिठक कर ...<br />
SONG-90<br />
On the day when death will knock at thy door what wilt thou offer to him?<br />
Oh! I will set before my guest the full vessel of my lige-I will never let him go with empty hands.<br />
All the sweet vintage of all my autumn days and summer nights,all the earnings and gleanings of my busy life will I place before him at the close of my days when death will knock at my door.''<br />
1913 से 100वर्ष हो गए,भारतीय साहित्य के नाम दूसरा नोबेल पुरस्कारआज भी प्रतीक्षित है। भारतीय मूल के विजोताओं से ही संतोष करना पड़ रहा है।<br />
भारत की इस महान विभूति को शत्-शत् नमन्।<br />
-वन्दना<br />
सादरVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-66888182865759776412013-04-26T17:25:00.001-07:002013-04-26T17:25:15.162-07:00'आज'उद्येश्य बदल गया<br />
भावों की पहरन,शब्द<br />
का परिमाण बदल गया।<br />
साहित्य,दर्पण समाज का<br />
धुंधला हो गया<br />
प्रतिद्वंदी तलवार का,कलम<br />
लोकेष्णा का दास बन गया<br />
बाढ है,तो बारिश भी है<br />
आऽज...<br />
भावेश का बहाव बदल गया<br />
साहित्य का,<br />
उद्येश्य बदल गया।<br />
परिवेश बदल गया।।<br />
परिवेश बदल गया<br />
-विन्दुVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-9195431955863605272013-04-23T19:10:00.001-07:002013-04-23T19:10:42.833-07:00'चिरानन्द'उद्वगन चित्त<br />
है पहचान<br />
असिद्ध बुद्धि की।<br />
आता कहां उफान<br />
सिद्ध दाल में<br />
बटलोई की।<br />
स्वरूप में<br />
स्थित होना ही<br />
है स्वस्थ होना।<br />
निज मान,अपमान<br />
आनन्द की चाबी<br />
औरों के हाथ <br />
क्या देना।<br />
चिरानन्द है <br />
स्वयं में<br />
बस है पहचानना।<br />
-विन्दुVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-72968448122203427732013-04-14T07:21:00.001-07:002013-04-14T07:21:35.971-07:00क्या जीवन है/हाइकू१<br />
बालू का स्थल<br />
जलाभास रश्मि से<br />
तपती प्यास<br />
२<br />
प्रीति सुमन<br />
नागफनी का बाग<br />
व्यर्थ खोजना<br />
३<br />
तृप्ति कामना<br />
घी दहकाए ज्वाला<br />
पूर्ति आहुति<br />
४<br />
जीन यात्रा<br />
हर क्षण रहस्य<br />
रोना या गाना<br />
५<br />
गन्तव्य कहां!<br />
लमकन जारी है<br />
क्या जीवन है!<br />
-विन्दुVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-30819675865313782872013-04-08T17:02:00.001-07:002018-09-17T09:03:54.453-07:00'मुझे बचाना'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
१<br />
आ जाओ खेलो<br />
शीतल छाया देंगे<br />
मित्र बुलालो<br />
२<br />
थक जाओ ज्यों<br />
आराम करो सब<br />
पंखा नीचे त्यों<br />
३<br />
पक्षी देखोगे<br />
मेरे आंगन आओ<br />
चूजे भी पाओ<br />
४<br />
छतरी खोई?<br />
बारिश से बचना<br />
आ जाओ नीचे<br />
५<br />
भूखे,प्यासे हो?<br />
फल खाओ या चूसो<br />
घर लौटो जब<br />
६<br />
क्यूं पहचाना?<br />
पेड़ मुझे कहते<br />
मुझे बचाना<br />
-विन्दु<br />
(बाल साहित्य)</div>
Vindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-15538840354460331612013-04-02T23:56:00.001-07:002013-04-02T23:56:45.731-07:00'अंश हूं तुम्हारा'जब जिन्दगी के किनारों की<br />
हरियाली सूख गई हो<br />
पक्षी मौन होकर<br />
अपने नीड़ों मे जा छुपे हों<br />
सूरज पर ग्रहण की छाया<br />
गहराती ही जा रही हो<br />
मित्र स्वजन कंटीली राहमें<br />
अकेले छोड़कर चल दिये हों<br />
संसार की सारी नाखुशी<br />
मेरे ललाट को ढक रही हो<br />
तब मेरे प्रभु!<br />
मेरे होठों पर हंसी की <br />
उजली रेखा बनाए रखना<br />
अंश हूं तुम्हारा,<br />
कायरता को न सौंप देना। <br />
-विन्दुVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-4594068624919209913.post-11598644581078824412013-03-22T17:18:00.001-07:002013-03-22T17:18:38.711-07:00'मृत्यु प्रिया'/हाइकूनश्वर जग<br />
तुम नित्य सदा से<br />
मैंने ये पाया<br />
------------<br />
तुम निष्पक्ष<br />
आज अराजक है<br />
ये जग जब<br />
------------<br />
दयावान तू<br />
उबे,थके,दुखी के<br />
कर गहती<br />
------------<br />
छिद्र बहुत<br />
जग ने कर डाले<br />
गले लगा ले<br />
-------------<br />
नौका पाई थी<br />
भव से तरने को<br />
इसे नसाया<br />
-------------<br />
ये रिश्ते नाते<br />
हैं लक्ष्य मे बाधक<br />
तू मिलवा दे<br />
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तुझे दुलारूं<br />
मृत्यु प्रिया जाने क्यूं<br />
सब डरते<br />
-विन्दुVindu babuhttp://www.blogger.com/profile/11965183591803020118noreply@blogger.com6