Wings of Fancy
''Solace of tacit emotion, Sight beyond horizon, A Soothing touch in pain, The wings of fancy,a queer way To seek the pearls in ocean.''
Wings of fancy
Thursday, March 3, 2022
नन्हें राही
अभ्युदय को पहले दिन स्कूल भेजना इतना भावुक था कि भावनाएं कलम तक आ ही गयीं...
ओ ह्रदय अंश,ए मर्म विन्दु
ऐ मेरे राजदुलारे,
निकल रहे हो जीवन-पथ पर
ईश्वर तुम्हें संवारे।
मेरा आंचल, अपना आँगन,
था संसार तुम्हारा
टीका-काजल-मीठे भोजन
तक था प्रेम हमारा
तेरे ओझल होने पर
भर आये नैन हमारे
निकल रहे हो ...
साथ तुम्हारे हमको भी
अब दृढ़ होना होगा
वात्सल्य, मोह से उठकर
कर्तव्य को चुनना होगा
उड़ना सीखो विहग सुकोमल
आकाश अनन्त पुकारे
निकल रहे हो...
डग-मग होना लेकिन अब
माँ को नही बुलाना
कठिन राह है नन्हें राही
तुम सरल सदा बनकर चलना
जीवन्त हो रहे हैं अब
सोये स्वप्न हमारे
निकल रहे हो...
मेरा साया हर क्षण
तेरे ही संग रहेगा
जग को अच्छा मानव देना
मेरा लक्ष्य रहेगा
सही दिशा में रहना 'राघव'
चाहे बाधाएं घेरें
निकल रहे हो...
-विंदु
04-04-2019
Wednesday, May 7, 2014
Tuesday, April 29, 2014
जय हो
आज जग की नाड़ियों में
चाह जय की
समाई इस तरह
स्व भी रौंदा,पर को कुचला
न रही पथ की खबर.
अपरिमित,कंटीली राह के
उस छोर पर
जो चमकता लक्ष्य-जय
बस! उसी पर नज़र
पग पगी नीरस थकन
लमकन बिखेरी
शांति झुलसे,क्रांति उपजे
जिस कौंध में
बोध है
जय हो वो कैसी?
भुस पे लीपी सी
कहीं ये जय न हो
इन्द्रियों की तुष्टि,चादरमें ढके
आत्मा के सजल से
नैन न हों
पहचान हो सत लक्ष्य की
आवर्त,पथ के
भास फिर शूल न हों
प्रिय लगे
खोखली जय-गूंज से परे
स्नेह भीगी नाद नीरव
-विन्दु
चाह जय की
समाई इस तरह
स्व भी रौंदा,पर को कुचला
न रही पथ की खबर.
अपरिमित,कंटीली राह के
उस छोर पर
जो चमकता लक्ष्य-जय
बस! उसी पर नज़र
पग पगी नीरस थकन
लमकन बिखेरी
शांति झुलसे,क्रांति उपजे
जिस कौंध में
बोध है
जय हो वो कैसी?
भुस पे लीपी सी
कहीं ये जय न हो
इन्द्रियों की तुष्टि,चादरमें ढके
आत्मा के सजल से
नैन न हों
पहचान हो सत लक्ष्य की
आवर्त,पथ के
भास फिर शूल न हों
प्रिय लगे
खोखली जय-गूंज से परे
स्नेह भीगी नाद नीरव
-विन्दु
Tuesday, February 25, 2014
योगी श्री अरविन्द:सॉनेट
सादर वन्दे वन्दनीय सुधी वृन्द।महानुभावों सर्वज्ञात है, गत 5 दिसम्बर को महर्षि अरविन्द का निर्वाण दिवस था। आपका साहित्य(सावित्री अभी छू भी नहींसकी),मेरे हृदय को बहुत सहलाता है।यद्यपि इस महान दार्शनिक,कवि और योगी के साहित्य की अध्यात्मिक ऊंचाई के दर्शन करने में भी समर्थ नहीं हूँ फिर भी सूरज को दिया दिखाने जैसा कार्य किया है,जो आपको निवेदित है।सादर निवेदन है कि मुझे जरुर अवगत कराएँ की मेरी समझ कहाँ तक सफल हो पाई है।
सांसे इक अद्भुत लय धारा में बहती हैं;
मम सर्वांगों में इसने दैवी शक्ति भरी
पिया अनन्त रस,जस दैत्य की सुरा आसुरी।
काल हमारा नाटक या स्वप्न बराती है।
आनन्द से हर अंश मेरा अप्लावित है
अब रुख बदला पुलकित,विघटित भाव तन्तु का
हुआ अमूल्य,स्वच्छ हर्षोल्लासित पथ का
जो त्वरित आगमन सर्वोच्च अगोचर का है।
मैं रहा नहीं और,इस शरीर के अधीन
प्रकृति का अनुचर,उसके शांत नियम का;
नहीं रही मुझमें इच्छाओं की तंग फँसन।
मुक्त आत्मा,असीम दृश्य का तदरूप हुआ
ईश का सजीव सुखद यंत्र यह मेद मेरा,
चिर प्रकाश का भव्य सूर्य यह जीव हुआ।
('Transformation' नामक कविता का अनुवाद,जो श्री अरविन्द ने आध्यात्मिता से आए परिवर्तन को वर्णित करते हुए लिखी थी।
-विन्दु
सांसे इक अद्भुत लय धारा में बहती हैं;
मम सर्वांगों में इसने दैवी शक्ति भरी
पिया अनन्त रस,जस दैत्य की सुरा आसुरी।
काल हमारा नाटक या स्वप्न बराती है।
आनन्द से हर अंश मेरा अप्लावित है
अब रुख बदला पुलकित,विघटित भाव तन्तु का
हुआ अमूल्य,स्वच्छ हर्षोल्लासित पथ का
जो त्वरित आगमन सर्वोच्च अगोचर का है।
मैं रहा नहीं और,इस शरीर के अधीन
प्रकृति का अनुचर,उसके शांत नियम का;
नहीं रही मुझमें इच्छाओं की तंग फँसन।
मुक्त आत्मा,असीम दृश्य का तदरूप हुआ
ईश का सजीव सुखद यंत्र यह मेद मेरा,
चिर प्रकाश का भव्य सूर्य यह जीव हुआ।
('Transformation' नामक कविता का अनुवाद,जो श्री अरविन्द ने आध्यात्मिता से आए परिवर्तन को वर्णित करते हुए लिखी थी।
-विन्दु
Monday, February 10, 2014
बोल,भावों के विहंगम!
तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से,
ऐ परिंदे!
हिलोर आ जाती है
स्थिर,अमूर्त सैलाब में,
छलक जाता है
चर्म-चक्षुओं के किनारों से
अनायास ही कुछ नीर.
हवा दे जाते हैं कभी
ये पर तुम्हारे
आनन्द के उत्साह-रंजित
ओजमय अंगार को,
उतर आती है
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,
अमृत की तरह.
बिखरते हैं जब,
सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग
तेरे आ बैठने से
चेतना फूँकती है सुगंधी
जड़, जीर्ण और...अचेतन में.
बोल,भावों के विहंगम!
है कहाँ तेरा घरौंदा?
कण-कण में या हृदय में,
या फिर दूर...
यथार्थ के उस यथार्थ में
जो,कई बार अननुभूत रह जाता है.
-विन्दु
ऐ परिंदे!
हिलोर आ जाती है
स्थिर,अमूर्त सैलाब में,
छलक जाता है
चर्म-चक्षुओं के किनारों से
अनायास ही कुछ नीर.
हवा दे जाते हैं कभी
ये पर तुम्हारे
आनन्द के उत्साह-रंजित
ओजमय अंगार को,
उतर आती है
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,
अमृत की तरह.
बिखरते हैं जब,
सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग
तेरे आ बैठने से
चेतना फूँकती है सुगंधी
जड़, जीर्ण और...अचेतन में.
बोल,भावों के विहंगम!
है कहाँ तेरा घरौंदा?
कण-कण में या हृदय में,
या फिर दूर...
यथार्थ के उस यथार्थ में
जो,कई बार अननुभूत रह जाता है.
-विन्दु
Saturday, February 8, 2014
भोली आस्था
एक मासूम...
तल्लीनता से जोर-जोर पढ़ रहा था
क-कमल,ख-खरगोश,ग-गणेश
शिक्षक ने टोका
ग-गणेश! किसने बताया?
बाबा ने...
माँ और पिता को सब कुछ माना
तभी तो सबसे बड़े देव हुए.
नहीं,गणेश नहीं कहते
संप्रदायिकता फैलेगी
जिसे तुम समझो झगड़ा. .विवाद
ग-गधा कहो बेटे.
आस्था भोली थी
बाबा के गणेश,मसीहा और अल्लाह से रेंग
'गधे' में शांति खोजने लगी...
-विन्दु
तल्लीनता से जोर-जोर पढ़ रहा था
क-कमल,ख-खरगोश,ग-गणेश
शिक्षक ने टोका
ग-गणेश! किसने बताया?
बाबा ने...
माँ और पिता को सब कुछ माना
तभी तो सबसे बड़े देव हुए.
नहीं,गणेश नहीं कहते
संप्रदायिकता फैलेगी
जिसे तुम समझो झगड़ा. .विवाद
ग-गधा कहो बेटे.
आस्था भोली थी
बाबा के गणेश,मसीहा और अल्लाह से रेंग
'गधे' में शांति खोजने लगी...
-विन्दु
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