Wings of fancy

Saturday, February 1, 2014

कुंदन सी नीरव विजय

जय हिन्द!
देश में गरीबी-उन्मूलन के नारे कितने भी गुंजार रहे हों लेकिन ग्रामांचलों की निर्धनता से तो आप सभी परिचित ही होंगे। कई बार होता ये है कि ग्रामीण समाज में जो सक्षम होते हैं अथवा यूँ कहें कि जो समाज के प्रतिनिधि होते हैं उनमें स्वयं को 'पालक' कहलाने की इच्छा इतनी बलवती होती है कि दुर्बल लोगों की सहायता की एक सीमा बांध देते हैं,यहाँ तक उनके पूर्ण अधिकार (जो सरकार द्वारा प्रदत्त हैं) भी उनतक नहीं पहुंचाते। इसी के चलते गरीब जनता इस सहायता को अपना अधिकार न समझ अभिजात्य वर्ग की दया समझने लगते हैं, क्योंकि यथास्थिति को जानते हुए भी उनमे आवाज उठाने का आत्मविश्वास नहीं रह पाता यदि आत्मविश्वास होता भी है तो उनकी कोई सुनता ही नहीं। आज समाज में जिसकी लाठी उसी की भैंस' है। इसी तरह की थोपी गरीबी को ढोते-ढोते इनमें से कई लोगों की आत्मा भी दुर्बल होती जाती है कि दूसरों की सहानुभूति की बाट जोहते रहते हैं। सहानुभूति की आस में सक्षम वर्ग की हाँ-हुजूरी करते अपना अस्तित्व भी उन्हें समर्पित कर देते हैं।

   इनसे हट के भी कुछ निर्धन जन ऐसे भी मुझे समाज में दिखे,जिन्होंने 'निर्धनता' को प्रारब्ध समझ स्वीकार किया। किसी की सहानुभूति की कोई आस नहीं, ईश्वर में अटल विश्वास ही विसंगत अधेरी राहों में उनके लिए रोशनी है। शोषण हुआ तो 'प्रभु तुम देखना' और कुछ अच्छा हुआ तो 'प्रभु तुम्हारी बाहें बहुत बड़ी हैं' सोच सदा पूर्ण संतुष्ट रहते हैं। न प्रभु से कोई अपेक्षा न किसी से,कर्तव्य से विमुखता तो किसी भी स्थिति में नहीं। ऐसे व्यक्ति की दिव्य आत्मा की लौ चर्म-चक्षुओं से तो जल्दी नहीं दीखती परन्तु हृदय से देखने पर उनकी अखण्ड मुस्कान में एक रक्षा कवच सा उनके पास स्पष्ट दीखता है।

ऐसा ही संघर्ष शील एक व्यक्तित्व है,कुंदन। जिन्हें हम गरीब तो कह ही नहीं सकते क्योकि-
'श्रीमाश्च्को यस्तु समस्त तोषः'। लेकिन भौतिक संसाधनों से अत्यंत वंचित। इन्हीं कुंदन पर आधारित एक सत्य-कथा लिखने का प्रयास किसी से प्रेरित हो कर किया था। अज्ञानतावश कथा में नाम वही के वहीकर दिए थे,इस अज्ञानता का फल इतना मीठा होगा...सोचा भी नहीं था।

हुआ ये आदरणीय मित्रों जिन महानुभाव से प्रेरित होकर कथा लिखी थी,उन्हीं से साझा करने का मन हुआ। उन्होंने मेरे गाँव के विषय में कुछ जानने की जिज्ञासा भी जताई थी। उस सत्य-कथा से उन संत-हृदय महानुभाव का हृदय इतना पिघला की कुंदन के बारे में और जानकारी जुटा सहायता का हाथ बढ़ाया। परन्तु कुंदन जी अनायास ही किसी सहायता तो स्वीकार नहीं करते(क्योंकि उनके बच्चे मेरे छात्र रहे हैं,कभी उनकी दैनीय स्थिति
देख छोटी-मोटी सहायता कर भी दी तो कुंदन ने हाथ जोड़कर मुझसे कहा-'बच्चों की आदत तुम तो न खराब करो,भगवान ने जितना दिया उतने में ही उन्हें रहना सिखाओ)।

अब इसके आगे क्या था' फिर भी उन्होंने बड़े प्रयास के बाद समझ ही लिया कि यह सहायता,जो उन्हें विदेश की धरती से यहाँ सुलभ होने वाली है,वह भी एक प्रारब्ध ही है,ईश्वर की कृपा है...कुंदन ने स्वीकृति देदी। इस दौरान लम्बी चर्चा के बाद निर्धारित किया गया कि कुंदन को प्रति माह ₹2000 की सहायता दी जाएगी।

जिन महात्मा ने यह दायित्व अपने ऊपर लिया है उन्होंने कहा-'यह कुंदन जी के लिए कोई खैरात नहीं होगी,बल्कि यह ( स्वीकार करना)उनका(कुंदन) हमारे ऊपर उपकार होगा।' बताते हुए मैं बहुत गदगद हूँ कि अगले 15 माह हेतु मेरे account में ₹30,000+ प्राप्त हो गये है,और एक बार कुंदन को दिए भी जा चुके हैं।
कुंदन जी ने पैसे लेते समय मुझसे कहा था-'बिटिया,मेरा मुंह तो बोल नहीं पाता आत्मा ही बोलती है,लेकिन यदि यह भगवान का विधान है तो सबको खूब बताना,गुणगान करना।'

यही वो वचन हैं जिनसे मैं यह लेख प्रस्तुत करने को प्रेरित हुई। वास्तव सहायता करने वाले कोई और नहीं इसी मंच के चिर-परिचित सदस्य हैं, जिन्होंने मेरी लेखनी पर इतना विश्वास किया। नाम है उनका आदरणीय श्री विजय निकोर (USA)

यह धनराशि मात्र धनराशि नहीं बल्कि...विश्वास,सम्वेदना,करुणा,आदि अनेक मानवीय गुणों का समन्वय है। कुंदन के लिए ईश-साक्षात्कार तो मेरी लेखनी को विशेष पुरस्कार और...उन महानुभाव के विशाल हृदय का परिचय।

इस विजय में कहीं 'स्वार्थ', 'लोकप्रियता' या 'मैं' की कोई भी प्रतिध्वनि नहीं...नीरव, लेकिन आत्म-संतुष्टि बिलकुल कुंदन सी।

(मौलिक/अप्रकाशित)

Friday, December 13, 2013

'मैं' को ध्येय बनाउँगी

कल्पना के मुक्त पर से
सीमाओं तक जाऊँगी।
दुश्वारियों से परे, निज
अस्तित्व को मैं पाऊँगी।।

पर हीन पंछी के हृदय
वेदना ने गान गाये ।
बह न पाए अश्क जो भी
वो शब्द सुर ही बन गये।

नभ सिन्धु तक सैर करके
रश्मि मोद चुन लाऊँगी।।

दुनिया के वीराने पथ
दृष्टि नही टिकती जिनपर।
संगीत सजाएंगे,उन
राहों से आहें लेकर।

खुश होंगे वो पत्थर दिल
गीत वही जब गाऊंगी।।

'मम'में'पर-दर्द'जोड़कर
ऋण-ऋण धन बन जाएंगे।
तुष्ट  बनेंगे हम दोनों
भोगी भी सुख पाएंगे।

एक दिन सुख-राशि बनकर
मिल 'अनन्त' में जाउंगी।।

'मैं'नही व्यष्टि का द्योतक
साहित्य बसा है इसमें।
'मैं' की दिशा सही हो तो
संसार सजेगा सच में।

हर मैं' उन्नत होने तक
'मैं' को ध्येय बनाऊँगी।।

-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)

Thursday, December 12, 2013

साहित्य की पहुँच कहाँ तक??

        आज का समय अनेक विसंगतियों से जूझ रहा है। पूंजीवीदी विकास की अवधारण औरवैश्वीकरण नें समाज में गहरी खांइयां डाल दी हैं। सदियों से हमारे देश कीपहचान रहे गाँव,किसान हमारी अद्वितीय संस्कृति पर संकट के घनघोर बादलमंडरा रहे हैं। पूरी अर्थव्यवस्था एवं न्यायव्यवस्थ भ्रष्टाचारकी भेंट चढ चुकी है। संस्कृति जिसके बूते हमारे राष्ट्र की पताका विश्वमें फहराया करती थी,आज... पाश्चात्य के अन्धेनुकरण की दौड़ में रौंदी जारही है। जब सभी मनोरंजन के साधन उबाऊ सिद्ध हो रहे है,ईमानदार,नि:सहाय और आमआदमी की सुनने वाला कोई नहीं रहा।         ऐसे अराजक और मूल्यहीन विकृत मंजर में दर-दर से ठुकराई दमन के हाशिएपर खड़ी आत्मा की अन्तिम शरणस्थली बचती है तो एकमात्र साहित्य! साहित्य का उद्गम अथवा साहित्य का अध्ययन। उद्गम के लिए साहित्य-धर्मिता धारित हर व्यक्ति तो होता नहीं ,तो बात टिक गई आकर अध्ययन पर।  आज की साहित्य  में ऐसी क्षमता है जो इस स्थिति में मानव-हृदय को सहलाने में सक्षम हो सके? ये एक यक्ष प्रश्न है।आज केसाहित्य में क्या ऐसे नि:सहाय पात्रों को स्थान मिलता है?क्या उन दमितआवाजों को उजागर कर सर सकता है जिनका सुनने वाला कोई नहीं? ऐसे कई प्रश्न रचनाशीलता के पल्ले में हैं।
    
मुंशी प्रेमचंद ने कहाहै-''साहित्य की गोद में उन्हें आश्रय मिलना चाहिए जो निराश्रय हैं,जो पतित हैं,जो अनादृत हैं।''         साहित्य का मूल उद्देश्य हमारी संवेदना को विकसित करना है। पीछे नजर डाल के देखें तो महादेवी,शरतचंद्र चटर्जी का साहित्य पद्दलित महिलाओं के बारे में सोचने को बाध्य करता है,मैक्सम गोर्की का मजदूरों के बारे में। प्रेमचन्द्र के पढें को किसानों की दशा से मन उद्वेलित होता है,टैगोर जी का साहित्य हमारा चित्त अध्यात्मिकता की ओर खींचता है। क्या आज का साहित्य की भूमिका कुछ ऐसी ही है?     इतिहास और हिंदी साहित्य साक्षी है कि जब-जब समाज में गिरावट,अर्थव्यवस्था में गिरावट,अनेकानेक संघर्ष उपजे हैं तब-तब उत्कृष्ट साहित्य सृजित हुआ है। आदिकाल,मध्यकाल हो या उपनैवेशिक काल,अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। इतिहास में कदाचित् पहली बार ऐसा हो रहा है जब साहित्य औरसमाज दोनो की अधोगति का एकाकार हो रहा है,दोनो में एक साथ गिरावट आ रहीहै। 

            आज जब साहित्य में संस्कृति,आम-आदमी की स्थिति और अवहेलि आवाज कोउजागर करने का समय है तब साहित्य महानगरीय और विलासिताओं के बोध से भरापड़ा है। मानो मनुष्य का विवेक और साहित्य-धर्मिता चंद समृद्ध शहरों तक ही सिमट कर रह गया हो। साहित्यकार विदेशों के चित्र,समृद्धियों के चित्र अपनी पहुंच प्रदर्शित करने के लिए प्रस्तुत करने लग गये हैं। आखिर कारण क्या है जो 100 वर्षों से अधिक हो गया है भारतीय साहित्यकार नोबेल पुरस्कार पर अधिकार नहीं कर सका।

         ऐसी बात नहीं कि आज उत्कृष्ट साहित्य-धर्मिता मृतप्राय हो गई है लेकिन कमी अवश्य आई है। वह कम परन्तु विशिष्ट रचना शीलता सत्ता-क्षेत्रों और चकाचौंध से दूर है और चुप-चाप अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए रचना कर्म कर रहे हैं। उसे प्रकाश में लाने वाले शायद कम ही हैं ,क्योंक जिसकी लाठी उसकी भैंस। स्वार्थ और स्वयं लोकप्रिय होने की अतिशय भूख अध्ययन,आंकलन और गुणवत्ता को निगल रही है।

          मुझे लगता है जो यत्र-तत्र कुछ संस्कृति,संवेदना और सज्जनता जीवित है वह इसी साहित्य की वजह से ही है,भेले ही ऐसा साहित्य पुरस्कार अधिकारी कभी न पाए।  ऐसे विलक्षण समय में साहित्य की बाहुल्यता,उत्तम शिल्प,खोखली लोकप्रियता से गदगद होने की बजाय पथ-प्रदर्शित करने वाले साहित्य को प्रकाश में लाने में सार्थकता है। कहा गया है-''एक सफल राजनीति अर्धशताब्दी में भी जन-कल्याण के लिए जो नहीं कर सकती वह उत्कृष्ट साहित्य की एक साधारण सी पंक्ति कर देतीहै।साहित्य के सृजन को कोई मिटा नहीं सकता।''  

      समाज में युवाओं के मनोरंजन के बहुतायत साधनउपलब्ध हैं,परन्तु मनोमंथन के लिए प्रेरित करने वाला एकमात्र उत्तमसाहित्य ही है।महान विद्वान आस्कर वाइल्डि ने कहा है-''Literature always anticipates life.It does not copy it or entertain it,but moulds it to its purpose''इसलिए साहित्य-धर्मिता विकसित करने से पहले मुझे लगता है,साहित्य की उत्कृष्टता और उद्देश्य की पहचान करने की नितान्त आवश्यकता है। सादर शुभेच्छावन्दना

Friday, November 22, 2013

आजादी

      माधव अपने चाचू के साथ चिड़ियाघर घूम रहा था।  बीच में ही चाचू सेघर चलने की जिद करने लगा।
चाचू ने कहा- ''बेटा इतनी दूर आए हैं,पूरा ज़ू देख तो लें। जानवरो कीगतिविधियां तो तुम्हे बहुत अच्छी लगती है। बड़ी उत्सुकता से देखा करतेथे,आज क्या हुआ तुम्हे?''

माधव ने तेवर तीखे करते हुए कहा-''चाचू मैं और आप इन कटघरों में बन्द होता तो?'

'चाचू- ''अरे बेटा! पशुओं से खुद की तुलना क्यों कर रहे हो?''
माधव-''चाचू,पशु बोल नहीं पाते तो क्या उनके हमारे तरह मन भी नहीं होता?उनका तो स्वभाव ही आजाद रहना होता है।''

उसके चाचू उसकी जिद पूरी करते हुए घर की ओर चल दिये।रास्ते में दोनो चुप थे। काफी देर बाद चुप्पी तोड़ते हुए माधव ने कहा-
''आपको याद है चाचू,सरकस में बेचारे पशु कैसे इशारे पर करतब दिखा रहेथे।''
चाचू-''हाँ बेटा यही मनुष्य की कला है जो जानवर को भी...''बीच मे ही काटते हुए माधव बोला-
''क्या कला,अबोध पशुओं की स्वतन्त्रता सेखिलवाड़ करें।पैसे कमाएं और हम लोग देख कर मस्ती करते रहें।''

इसबार उसके चाचा शान्त रहे।अभी दोनो घर पहुंचे नहीं थे कि अचानक एक मदारी दिख गया। उसके चाचा नेसोचा अब माधव पुरानी बात भूल गया होगा। अभी बच्चा ही तो है। यही सोच करचाचा ने कहा-
''माधव बंदरिया नाचते हुए देखोगे? वह देखो मदारी।"
माधव ने तपाक से उत्तर दिया-''चाचू अभी मेरे गले में जंजीर पड़ी होती,इसबंदरिया की तरह तब भी आप इतने ही खुश होते?''

     तब तक दोनो घर के करीब पहुंच चुके थे। माधव दौड़ा-दौड़ा गया अपने पट्टे को उड़ा दिया। जब तक सब रोकते उसने अपने जिम्मी नाम के प्यारेकुत्ते को भी मुक्त दिया।उसने सबकी डांट चुपचाप खुशी से सुन ली। अब माधव खुद को स्वतन्त्र महसूसकर रहा था। बन्धन मुक्त कर देने के बाद भी माधव के प्यारे पट्टूं औरजिम्मी रोज माधव से मिलने आते हैं।

  -वन्दना(साखिन,हरदोई)

Friday, September 27, 2013

बत्तख और भैंस/बाल कहानी

तालाब की लहराती लहरों में किलकारियां करती हुई भैंस को देख पास में तैरती बत्तख ने पूछा- ''बहन आज बहुत खुश लग रही हो,क्या बात है?''
भैंस-''सच्ची बहन,आज मैं बहुत खुश हूं।''
बत्तख-''अरे! क्या हुआ,मुझे भी बताओ।''
भैंस-' बहन,दो दिन पहले मैं कानपुर गई थी,जहां गंगा में नहाया,तब से मेरे रग-रग में जल की गंदगी और बदबू समाई हुई थी। आज सुन्दर हरियाली से घिरे इस छोटे से तालाब में नहाकर मानो मेरा मन तक धुल गया हो। सुहानी पुर्वइया...ऐसा लग रहा है जल नृत्य कर रहा हो।''
बत्तख ने कहा-अच्छी बात है बहन तुम्हे यह वातावरण अच्छा लग रहा है,लेकिन गंगा तो भारत की पवित्रतम् नदी है। इसके जल के आचमन से ही अपवित्रता धुल जाती है। और तुम गंगा की गंदगी इस छोटे से पोखर में धुलने की बात कर रही हो! गंगाजल कभी अपवित्र नहीं होता बहन।''
भैंस की पीठ पर बैठा बगुला बीच में बोल पड़ा-''जैसे आपकी धवलता...कभी कम नहीं होती,चाहे कीचड़युक्त पानी में तैरो या स्वच्छ जल में।''
बत्तख गर्व से मुस्कराई परन्तु भैंस ने कहा-''बगुले भाई, मैं काली हू, मुझे दोष भी पहले दिखते है,मनन करने की क्षमता मुझमें कहा! सतही तौर पर मुझे जो आभास हुआ सो बताया।''
बत्तख और बगुला दोनो यह सोचकर शांत हो कि गए गंगा जी के सम्पर्क में सभी विवेकशील ही तो नही आते हैं,जो इनकी अखण्ड पवित्रता को समझे। मानव अपने स्वार्थ के लिए स्वच्छता और शुद्धता को भी कुचल रहे हैं। इससे हम पशु भी त्रस्त हैं।



-वन्दना तिवारी

Saturday, September 21, 2013

गौरव या हीनता??

सादर वन्दे सुहृद मित्रों...
हिन्दी दिवस...हिन्दी पखवाड़ा...फिर धीरे धीरे जोश टांय टांय फिस्स!
शुभप्रभात,शुभरात्रि,शुभदिन सभी को good morning,good night & good day दबाने लगे।
आज बच्चों के लिए (क्योंकि बच्चे हिन्दी के शब्दों से परिचित नहीं या फिर उनका अंग्रेजी शब्दकोष बढाने के लिए) बेचारे बुजुर्गों और शुद्ध हिंदीभाषी लोगों को भी अंग्रेजी बोलने के लिए अपनी जिव्हा को अप्रत्याशित ढंग से तोड़ना मरोड़ना पड़ता ही है। उन्हें गांधी जी का वक्तव्य कौन स्मरण कराए जो कहा करते थे-
''मैं अंग्रेजी को प्यार करता हूं लेकिन अंग्रेजी यदि उसका स्थान हड़पना चाहती है,जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं सख्त नफरत करूंगा।''
अध्ययन का समय ही कहां है अब किसी के पास जो महापुरुषों के सुवचनों संज्ञान में आये। ईश्वर ही बचाए समाज को।
14सितम्बर 1949 को संविधान सभा मे एकमत होकर निर्णय लिया गया कि भारत की राजभाषा हिन्दी होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए ''राष्ट्र-भाषा प्रचार समिति वर्धा'' के अनुरोध पर 1953 से समपूर्ण भारत में 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज,राष्ट्रीय पशु,पक्षी आदि की तरह राष्ट्रीय भाषा भी होनी चाहिए,लेकिन किताना दुखद है कि हम हिंदी को देश की प्रथम भाषा बनाने में सक्षम नहीं हो पाए हैं।
हिंदी भारत की प्रथम भाषा बने भी तो कैसे जब देश के प्रथम नागरिक तक आज हिंदी को नकार अंग्रेजी में सम्बोधन करते हैं,जहां के नागरिक हिंदी के माध्यम से शिक्षा दिलाने में हीनता का अनुभव करते हैं,रिक्शाचालक भी रिक्शे पर अंग्रेजी में लिखवाकर छाती चौड़ी करते हैं। ज्यादा क्या कहें हमारे संविधान में ही देश की पहचान एक विदेशी भाषा में है-India that is Bharat'. विचारणीय है जहां वैश्विक मंच पर सभी देश अपनी भाषा के आधार पर डंका बजा रहे हों और अकेले हम...विदेशी भाषा में सस्वयं का परिचित करा रहे हों,तो हमे गुलाम अथवा गूंगे देश का वासी ही कहा जाएगा। विद्वानों ने कहा है कि जिस देश की कोई भाषा नहीं है वह देश गूंगा है। ऐसा सुनकर,अपना सिक्का खोंटा समझ हमें सर ही झुका लेना पड़ेगा। आज चीन जैसे देश राष्ट्र भाषा का आधार लेकर विकास की दौड़ में अग्रसर हैं,और भारत में खुद ही अपनी भाषा को रौंदा जा रहा है। अंग्रेजी शिक्षितजन अपनी भाष,संस्कृति,परिवेश और परम्पराओं से कटते जा रहे हैं और ऐसा कर वे स्वयं को विशिष्ट समझ रहे हैं।
कैसी विडम्बना है आज हीनता ही गौरव का विषय बन गई है। ऐसी दशा में मुक्ति भला कैसे सम्भव है? आज अंधी दौड़ में हम भूल गये हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी अपनी मात्रभाषा हिंदी के बूते शिकागो में विश्व को भारतीय संस्कृति के सामने नतनस्तक कर दिया। बहुत पहले नहीं 1999 में माननीय अटल बिहारी बाजपेई(तत्कालीन विदेश मंत्री) ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में सम्बोधित कर हमारे राष्ट्र को गौरान्वित किया था। अंग्रेजी के पक्षधर गाँधी जी के सामने अपनी जिव्हा दमित ही रखते थे। अंग्रेजी के बढते अधिपत्य और मातृ-भाषा की अवहेलना के विरुद्ध 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आवाज उठाई गई थी। श्री केशवचन्द्र सेन, महर्षि दयानन्द सरस्वती,महात्मा गाँधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास,डा. राममनोहर लोहिया आदि देशभक्तों का एक स्वर मे कहना था-''हमें अंग्रेजी हुकूमत की तरह भारतीय संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को यहां से निकाल बाहर करना चाहिए।'' ये हिंदी सेवी महारथी जीवन के अन्तिम क्षणों तक हिंदी-अस्मिता के रक्षार्थ संघर्ष करते रहे।
दुरभाग्वश वे भी मैकाले के मानस पुत्रों के मकड़जाल से हिंदी को मुक्त नहीं करा सके और राजकाज के रूप में पटरानी अंग्रेजी ही बनी हुई है,जबकि भारती संविधान इसे सह-भाष का स्थान देता है।
मन्तव्य अंग्रेजी या किसी भाषा को आहत करने का नहीं हिंद-प्रेमियों बस हम भविष्य की आहट पहचानें, अंग्रेजी अथवा किसी भी विदेशी भाषा को जानें,सम्मान करें परन्तु उसे अपनी अस्मिता या विकास का पर्याय कतई न समझें। वास्तव में राष्ट्रभाषा की अवहेलना देश-प्रेम,संस्कृति और हमारी परम्पराओं से हमे प्रछिन्न करती है। अपनी मातृ-भाषा का प्रयोग हम गर्व से करें,हिंदी के लिए संघर्ष करने वाली मनीषियों की आत्माओं का आशीर्वाद हमारे साथ है।
जय हो!
सादर
-वन्दना

Thursday, September 5, 2013

शिक्षक के सम्मान मे गिरावट या वृद्धि??

स्वप्रज्ञा बुद्धि बलेन चैव,
सर्वेषु नृण्वीय विपुलम् गिरीय।
अज्ञान हंता,ज्ञान प्रदोय: त:
सर्वदोह गुरुवे नमामि।।

आज तकनीकी युग में कम्प्यूटर द्वारा शिक्षा क्षेत्र में एक नई क्रान्ति प्रज्ज्वलित हुई है,परन्तु नौनिहालों के मन में ज्ञान ज्योति प्रदीप्त करने के लिए शिक्षक का स्थान महत्वपूर्ण है। माता-पिता के पश्चात बालकों को सही दिशा देने व उनका सर्वांगीण विकास करने में शिक्षक प्रमुख भूमिका है। शिक्षक सामाजिक परिवेश की वह गरिमामयी मूर्ति है जो हम सभी में ज्ञान का प्रकाश फैलाकर नैतिकता व गतिशीलता को गति प्रदान करते हैं।
ऐसे देवस्वरूप व्यक्तित्व को शत्-शत् नमन!
वस्तुत: गुरु-शिष्य का सम्बन्ध सदैव प्रकाशमान रहता है,शिक्षार्थी के हृदय में अपने गुरु के प्रति प्रेम व सम्मान सदैव प्रवाहमान रहता है फिर भी शिक्षक-दिवस इस पवित्र सम्बन्ध को मांजने का दिवस है,जिंदगी की भागमभाग में धूमिल हुए रिशते को पुन: स्वच्छ एवं सौम्य बनाने का दिन है।
अतीत में गुरु-शिष्य सम्बन्ध बड़ा ही दिव्य हुआ करता था,गुरु का स्थान साक्षात् वृह्म स्वरूप था,गुरु के आदेश-निर्देश मन्त्र सदृश्य थे। डा. राधाकृष्णनन जी कहा करते थे कि मात्र जानकारी देना ही शिक्षा नहीं है अपितु शिक्षा द्वारा व्यक्ति के कौशल,बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का विकास करना महत्वपूर्ण है। करुणा,प्रेम,विनय और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।
अब प्रश्न उभरता है कि आज के बदलते परिवेश में उनका वक्तव्य कहां तक प्रासंगिक है? गुरु-शिष्य के सम्बन्ध मे कहां तक परिवर्तित हुआ है? अर्थयुग का प्रभाव इस रिश्ते पर पड़ा है अथवा नहीं?
प्रतिस्पर्धा के चलते इस बन्धन में कुछ कमजोरी अवश्य आयी है परन्तु इसका उत्तरदायी कहीं न कहीं शिक्षक भी है। शिक्षक विद्यालय ही नहीं पूरे समाज का आदर्श होता है,उसके नैतिक गुण,सुदृढ़ चरित्र से उत्तम समाज की आधारशिला निर्मित होती है। आज के अर्थ-बाहुल्य कलयुग में क्या कहा जाय!न शिक्षक को न अपने दायित्व की सुधि है न ही शिष्य को अपनी गरिमा की। यत्र-तत्र तो इस पवित्र सम्बन्ध की हत्या भी हो जाती है,परन्तु शिक्षक दिवस की औपचारिकताओं में कोई कमी नहीं।
ग्रामीण क्षेत्र के प्रथमिक विद्यालयों पर नजर डालें तो कईबार शिक्षा की विदीर्ण तस्वीर सामने आती है। विद्वान और योग्य शिक्षक भी अपने कर्तव्यों से गिरते जा रहे हैं। प्राय: 'यहां के बच्चे डी.एम.नहीं बन जाएंगे चाहे जितना सर पटक दें' जैसी उक्ति सुनने को मिल जाती है। वहां के छात्रों के शिक्षण स्तर की जो बात करें बड़ा ही दुखद है।
इस विलक्षण समय के चलते बुराइयों का कद अवश्य बढ़ा है लेकिन अच्छाइयां भी मृतप्राय नहीं हुई हैं। उतनी ही अच्छाई के बूते राष्ट्र को विश्वफलक पर विकास की राह में गतिशीलता प्राप्त है। इस अराजक समय में भी विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि अनैतिकता चाहे जितनी सीमाएं पार कर गई हो,अस्मिता कितनी भी विस्मृत हो रही हो परन्तु गुरु शिष्य का सम्बन्ध आज भी बहुत ही गरिमा मय और दिव्य है बशर्ते हम शिक्षकों की रगों में उच्च नैतिक गुण,दृढ चरित्र और निष्ठा का लहू प्रवाहित होता हो। किसी विद्वान ने व्यर्थ ही नहीं कहा है-

''चुकता है कर्तव्यों से ही,
निज सम्बन्धों का कर्जा।
जो जैसा कर्तव्य निभाता,
पाता वैसा दर्जा।।''
अत:शिक्षक दिवस वह अवसर है जब शिक्षक दृढसंकल्पित होकर अज्ञान तम को मिटाने का बीड़ा उठाएं और छात्र भी गुरुओं को केवल उपहार ही नहीं बल्क सम्मान से प्रतिष्ठित करें। पुन: हमें अस्तित्व प्रदान करने वाले गुरुओं और शिष्ट शिक्षकों की बार-बार वन्दना।
सादर
शुभ शुभ