द्वन्द
रेय आई गर्त तो
सब पाटने हुमके,
पत्थरोंकेभी दृगों से
भावना केविन्दु छलके,
लड़ तिमिर से
पग बढ़े, मग मे
दीप ही दीप चमके,
निष्कपट, नि:शब्द
आह मे जब
आस्था की मांग थी,
पत्थरों के ढ़ेर को
तब कहां पहचान थी!
द्वन्द छाया है हृदय में-
ये काल के आयाम हैं
या अर्थ ही अब भाल है?
ˉ 'विन्दु'
आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 30/01/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteकृपया वर्ड व्हेरिफिकेशन हटाइये
सादर आभार महोदया,जो आपने मुझ अनभिज्ञ को भी स्थान दिया.
ReplyDeleteधन्यवाद!
बहुत बढ़िया विन्दु जी...
ReplyDeleteअनु
सस्नेह धन्यवाद अनु जी!
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