अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. अभिव्यक्ति प्रेषित करने का माध्यम कला है, स्वरूप साहित्य, फिल्म, पेंटिंग, कर्टून कुछ भी हो सकता है. कई बार स्वतन्त्रता ही कलाकार को मुसीबत के घेरे मे धकेल देती है. अधिकार का प्रयोग से कही किसी का फ़तवा जारी होता है तो कोई देश से ही निकाल दिया जाता है, कोई जेल भेजा जा रहा है कही हिंसा का विषय बन रहा है. कहते हैं साहित्य/कला समाज का दर्पण होता है फिर ये विषमताओं के लिए किसे जिम्मेदार माना जाय? अभिव्यक्ति को, सरकार को या जनसमुदाय को? आस्था को या बुद्धि को?
हाल ही मे इस्लाम पर बनी फिल्म 'इनोसेंस आफ मुस्लिम', जिसमे कथित तौर पर पैगम्बर मुहम्मद के खलाफ अपमानित भाषा के प्रयोग का आरोप लगाया गया है. इसको लेकर विश्व के कइ देशों में हिंसात्मक प्रदर्शन हुए हैं जिसके चलते कुछ लोगों को जाने भी गवांनी पड़ी हैं. असीम त्रिवेदी को ही देखे तो अभिव्यक्ति के कारण ही देशद्रोह, संविधान के अपमान आदि आरोपों को झेलना पड़ा. असीम का मानना है कि यदि सत्य बेलना देशद्रोह है तो मैं दोषी हूं. वह कहते हैं-''हर घर में लोग शीशा टांगते हैं जिसको अपनी सूरत की जितनी चिन्ता होती है उतना ही बड़ा शीशा टांगता है. साहित्य, कला और कार्टून, ये देश और समाज के आइना हैं आपको तरक्की देखनी है तो बड़ा शीशा टांगना होगा.''
तसलीमा नसरीन के विवादित लेखन के लिए दी गई प्रताड़ना की चर्चा तो जन-जन तक है. उन्हे विवादास्पद उपन्यासों (लज्जाऔर द्विखण्डितो) के लिए बांग्लादेश ने निष्कासित ही कर दिया. फिर भारत मे भी वे असिरक्षा की भावना से घिरी रहीं. अब भी वह इसी कारण से योरोप में कही अज्ञातवास मे रह रही हैं. सलमान रुश्दी पर भी स्वतन्त्र लेखन के लिए बहुत भर्त्सना झेलनी पड़ी. वह भारतीय मूल के ब्रितानी लेखक हैं उनका उपन्यास 'सैटेनिक वर्सेज' फासा विवादित और चर्चित है. यह उपन्यास उन्होने 1980 मे लिखा था जिसके बाद विश्व भर के मुसलमानों ने विरोध प्रदर्शन किए और ईरान के धर्मगुरु अयातोल्ल् ख़ोमानी ने तो सीधे उनकी मौत के आदेश जारी कर दिये थे. हाल ही लिखी आत्मकथा मे उन्होने खुलासा किया दै कि इस दौरान उन्हें भूमिगत भी होना पड़ा था. रुश्दी कहते हैं- ''मुस्लिम बाहुल देशों में लेखकों को प्रताड़ित किया जाता है. सभी पर एक ही आरोप ईशनिंदा, धर्मतिरस्कार... कुछ लोगों ने माना अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए, अगर ऐसा है ते हम तनाव के वातावरण से बाहर आ सकते हैं. नोबेल पु. विजेता तुर्का साहित्यकार का भी मानना है- ''हमारे कई साथी पत्रकार और लेखक जेल मे समय बिता चुकेंहैं... पर तुर्की बोलने की आजादी देना नहीं चाहता''
अनेक मामले प्रासंगिक हैं, जैसे भाजपा नेता जसवन्त सिंह द्वारा लिखित 'जिन्ना:इण्डिया पार्टिशन इडिपेंडेंस', जेम्स लेन की 'शिवाजी:हिन्दु किंग इन इस्लामिक इण्डिया' डी.एच, लारेन्स, काव्या विश्वनाथन, कई फिल्में आदि. लेखक अशोक बाजपेई इस सम्बन्ध मे राजनीति के दोषी ठहराते हुए विचार व्यक्त करते हैं- प्रतिबन्ध लगाना कानूनू के अन्तर्गत आता है इसलिए जायज तो है लेकिन अनैतिक और अलोकतान्त्रिक है. सरकाक छोटे-छोटे समुदायें की बात मानती है क्योंकि बड़ा समुदाय चुप रहता है.सरकार इनके सामने घुटने टेक देती है...उन्हें लगता है यही जनमत है.''
कला उकेरने के लिए सूझ-बूझ, सद्विचार और भावनाओं को पिरेया जाता है. इसलिए इसके परिणाम रचनात्मक होने चाहिए ना कि विध्वंसात्मक. चाणक्य नीति मे कहा गया है- 'बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेश्च कुतेबलम्'. कला का द्योतक बुद्धि है अत: 4स के परिणाम सुखद् हेने चेहिए भड़काउ या विद्रेही नहीं. नेपोलियन का मानना था ''दुनियां मे दो ही ताकतें है- कलम और तलवार, अन्त मे विजय कलम की ही हेती है.'
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