Wings of fancy

Friday, February 8, 2013

...मनोदशा

....धीरे-धीरे विद्यालय बन्द करने का भी समय हो चला था तबतक उसे याद आया कल बच्चियों ने कहा था-माँ स्कूल मे प्रोग्राम है आपको जरूर चलना है,सबके तो पापा आएंगे' माँ भी द्रवित होकर जाने के लिए कह रही थी,सो अगले दिन की एप्लीकेशन लिख के रख दी।
स्कूल पहुंचते ही बेटियों ने माँ का अपने सर से परिचय कराया-''सर मेरे पापा नहीं,मेरी माँ आईं हैं'
'अच्छी बात है बेटे. अरे ये तो मेरे साथ पढ़ती थी,वर्तिका है' आश्चर्य के साथ कहा।
'मुझे पहचाना वर्तिका मैं...'
'जी हाँ बिल्कुल संजीव' हंसकर कहा।
तुम तो हमेशा अव्वल रहती थी पढ़ाई में,अच्छी जगह पर होगी इस समय-संजीव ने आग्रहपूर्वक कहा
'हाँ,इस समय मै अपने पति की जगह जाब कर रही हूं' कुछ कतराते हुए जवाब दिया।
संजीव-'मतलब! अब वो दुनिया मे नहीं हैं,और तुम पहले से नौकरी नही?'
'नहीं,जल्दी शादी होने के कारण आगे पढ नहीं हो पाई,सूरज ने कहा भी पढ़ाई कर लो पर मुझे लगा सूरज के रूप में मुझे परम लक्ष्य मिल गया है।खैर... मैं उनके अन्तिम उपहार के साथ खुश हूं,गाँव का शुद्ध परिवेश और निश्छल बच्चों का साथ मुझे बहुत लुभाता है।'
आँख की कोरें नम होती देख संजीव ने बात बदली-तुम लिखती भी तो अच्छा थीं,आज के प्रोग्राम का समापन आपकी कविता के साथ होगा।
'नहीं नही अब मैं नहीं..'
पर उसकी बात न सुनते हुए संजीव ने एंकर से जा बताया।
बार्तालाप को आगे बढ़ाते हुए-'शालिनी आपकी पड़ोसन है न!बता रही थी आपकी सासू माँ का स्वभाव...''
तुरन्त तेवर बदल गये और बीच में ही बोल पड़ी-'क्षमा चाहूंगी मि.संजीव,कईबार नारी के जीवन मे आई विषमता उसे कर्कशा कुलटा न जाने क्या बना देती हैं.दुसरी बात उसमे अनीति या गलत देखने की क्षमता कमतर् होती है साथ ही कभ-कभी,भविष्य में कुछ गलत न हो जाए इससे भी सहम जाती है वस्तुत: यही उनकी कठोर वाणी का कारण बनता है,
बिना उसकी मनोदशा समझे कुछ भी कहना कैसे...
तबतक एंकर ने पुकारा और साथ वर्तिका के सिविल मे टाप करने की सूचना भी दी(जो शायद उसे भी अभी नही मालूम थी)-
वर्तिका ने कविता में मानो खुद को ही प्रस्तुत कर दिया हो-
इक दीप प्रदीप्त हुआ
उजियारे में
मात्र प्रेम की प्यास
और ढेर से प्रकाश की आभा
संजोए हुए
कभी आरती मे सजी
कभी कब्र पे चढ़ी
शाम हुई कुछ रोशनी उभारी
फिर रात के तम् से लड़ती रही
सुहानी प्रभात की आस
लगाए हुए
सुबह हुई
सूरज में अस्तित्व ही
विलीन कर दिया
अनजान थी के
रात भी आएगी
घटाओं की धुंध भी छाएगी
पर आस्था से अनजाने
वर्तिका दृढता पा रही थी
अनवरत् जलने के लिए
विषमताओं से लड़ने के लिए
धुंध मे रोशनी दिखाने के लिए
(गहरी सांस लेते हुए)
सूरज ढल गया
वर्तिका रोशन रही...
बस आवाज पूर्णत: अवरुद्ध हो गई।
-विन्दु

1 comment: