कल (7 मई) गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर का जन्मदिवस था और 2013 उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने का 100वां वर्ष है। मन में आया कि एक छोटा सा परिचय अपने ब्लाग में संग्रहीत करूं। क्योंकि मुझे लगता है कोई भी भारतीय पुस्तकालय,किसी भी भारतीय का अध्ययन गीतांजलि के बिना अपूर्ण है।
'गुरुदेव' की उपाधि से सुविख्यात,कवि,साहित्यकार,दार्शनिक,महान सन्त,भारतीय साहित्य में एकमात्र नोबेल पुरस्कार विजेता वन्दनीय रबीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति में नई चेतना फूंकने वाले युगदृष्टा थे। सर्वविदित है कि गुरुदेव का जन्म ७मई,१८६१ में कोलकाता में हुआ था। बहुत महत्वपूर्ण है कि टैगोर की दो रचनाएं दो राष्ट्रगान बनीं-
जन गण मन-भारत
आमार सोनार बंगला-बंगलादेश
बचपन से ही उनकी साहित्यिक प्रतिभा के दर्शन जनमानस को होने लगा था। उनकी पहली लघुकथा,जो 8 वर्ष की अवस्था में लिखी गई थी,1877में प्रकाशित हुई,जब वे मात्र 16 वर्ष के थे। धीरे धीरे उनकी परिपक्वता के साथ उनके सृजन का जाल भी विश्व में फैलने लगा।
संसार की समस्त प्रतिभा,साहित्य,दर्शन और चित्रकला आदि का आहरण कर मानो उन्होनें अपने अन्दर समाहित कर लिया था। पिता के ब्रह्म समाजी होने के कारण वह ब्रह्मसमाजी तो थे पर अपने रचना कर्म से उन्होनें सनातन धर्म को भी खूब सींचा।
ईश्वर और मनुष्य का साश्वत उनकी रचनाओं में अनेकानेक तरह से प्रतिबिम्बित होता है।
साहित्य की शायद ही कोई विधा गुरुदेव की रचनाओं मे शामिल न हो,कविता,गान,कथा,उपन्यास,नाटक,शिल्परचना सबकुछ लेखनी से तराशा। प्रमुख रचनाएं-
गीतांजलि,गीताली,गीतमाल्य,गोरा,साधना,शिशुभोलानाथ आदि आदि अनेक हैं।
प्रकृति के सानिध्य में रहने के शौक ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की। फिर शान्तिनिकेतन को दृढता प्रदान करने के लिए टैगोर ने देशभर में नाटकों का मंचन कर धन संग्रहीत किया। गुरुदेव द्वार रचित 2230 गीतों का परिणाम रवीन्द्र संगीत है। अलग-अलग रागों मे प्रस्तुत उनके गीत आभास कराते हैं मानों गीतों की रचना राग के लिए ही की गई हो।
दर्शन की बात करें तो टैगोर ने अपने दर्शन में मानवता को सर्वोच्च स्थान दिया और राष्ट्रवाद को दूसरे पावदान पर रखा। विलक्षण बात है कि जीवन के अन्तिम दिनों में,जब कला के प्रति रुझान सुस्त होने लगता है,तब गुरुदेव ने चित्रकारी में पदार्पण किया और महारत हासिल की।
1910में लिखी 'गीतांजलि' का अंग्रेजी अनुवाद महान ब्रिटिश कवि w.b.yeats के पास 1912 में पहुंचा,और यीट्स ने पुस्तक का संक्षिप्त परिचय लिखा। अगले साल ही करिश्मा हो गया जब गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार विजेता घोषित किया गया।टैगोर के साथ ही भारत का साहित्यिक ध्वज विश्वाकाश में लहलहा उठा। पुस्तक अदद प्रेम,दर्शन,प्रकृति और अध्यात्म का एक मिला जुला सा अनुभव है। एक ओर प्रेम की तलाश में डोलती एक करुण पुकार है तो दूसरी ओर मानवीय गरिमा,जिजीविषा और उत्थान का निर्भीक और स्पष्ट आह्वाहन है।कुछ गीत जिनने मेरे हृदयपटल पर गहरी छाप छोड़ी-
SONG-18
''Clouds heap upon clouds and it darkens.
Ah,love,why dost thou let me wait outside at the door all alone?
In the busy moments of yje noontide work I am with the crowd,but on yhis dark lonely day it is only for thee that i hope.
If thou showest me not thy face,if thou leavest me wholly aside,know not how I am to pass these long rainy hours.
I keep gazing on the far-away gloom of the sky,and my heart wanders wailing with the restless wind.''
हिन्दी गीतांजलि: गीत 44 : जगते आनंद-यज्ञे आमार निमंत्रण: जगत के आनंद-यज्ञ में मिला निमंत्रण। धन्य हुआ, धन्य हुआ, मेरा मानव-जीवन। रूपनगर में नयन मेरे घूम-घूमकर साध मिटाते, कान मेरे गहन सुर...
SONG-49
You came down from your throwne and stood at my cottage door.
I was singinf all alone in a corner,and the melody caught your ear.
You came down and stood at my cottage door.
Masters are many in your hall,and songs arre there at all hours. But the simple carle of this novice struck at your love. One plaimtive little strain mingled with the great music of the world,and with a flower for a prize You came down...
हिन्दी गीतांजलि: गीत 58 : जीवन जखन शुकाये जाय: जीवन जब लगे सूखने करुणा-धारा बनकर आओ। सकल माधुर्य लगे छिपने, गीत-सुधा-रस बरसाओ। कर्म जब लेकर प्रबल आकार गरजकर ढक ले चार दिशाऍं हृदय-प्रांत ...
हिन्दी गीतांजलि: गीत 66: वहन कर सकूँ प्रेम तुम्हारा ऐसी सामर्थ्य नहीं। इसीलिए इस संसार में मेरे-तुम्हारे बीच कृपाकर तुमने रखे नाथ अनेक व्यवधान- दुख-सुख के अनेक ...
हिन्दी गीतांजलि: गीत 67: हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज लेकर हाथों में अरुणवर्णी पारिजात। सोई थी नगरी, पथिक नहीं थे पथ पर, चले गए अकेले, अपने सोने के रथ पर- ठिठक कर ...
SONG-90
On the day when death will knock at thy door what wilt thou offer to him?
Oh! I will set before my guest the full vessel of my lige-I will never let him go with empty hands.
All the sweet vintage of all my autumn days and summer nights,all the earnings and gleanings of my busy life will I place before him at the close of my days when death will knock at my door.''
1913 से 100वर्ष हो गए,भारतीय साहित्य के नाम दूसरा नोबेल पुरस्कारआज भी प्रतीक्षित है। भारतीय मूल के विजोताओं से ही संतोष करना पड़ रहा है।
भारत की इस महान विभूति को शत्-शत् नमन्।
-वन्दना
सादर
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