संवेदना के
शुष्क तरु सानिध्य में,
पुष्प प्रीति के,
ढूंढे जा रहे हैं आज।
पत्थरों को ईश मान;
मंदिरों में घट बंधा,
घट-जलधार के पास से,
पिपासाकुल खग
भगाए जा रहे हैं।
प्रसाधन-जनित
यज्ञशाला की अग्नि में,
आँच के भय से
सब आहुति घटा रहे हैं।
सुना है,देखा नहीं
भगवान औ भूत दोनों को
पर...ईशास्था से अभय
को नकार
भूत में विश्वास कर
उर काँपते हैं आज।
-विन्दु
आपकी यह रचना 31-05-2013 को http://blogprasaran.blogspot.in पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteआपने मेरी रचना को गति देकर वहाँ तक पहुंचाया इसके लिए आपका बहुत आभार आदरणीय!
Deleteआस्था-अनास्था पर कोमल शब्द-सेतु........
ReplyDeleteआदरणीय निगम महोदय आप मेरे ब्लाग पर पधारे,इसके लिए आपका हृदयातल से आभार।
Deleteस्नेह बनाए रखें महोदय।
सादर
गहन चिंतन से उपजी एक उत्कृष्ट रचना !
ReplyDeleteआदरेया आप यहां पधारीं,मेरा रचनाकर्म सार्थक हुआ।
Deleteस्नेह बनाए रखें।
सादर
श्रेष्ठ रचना
ReplyDeleteआपका बहुत आभार आदरणीय अभय जी!
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