जय श्री कृष्ण!
जन्माष्टमी के उपलक्ष में एक प्रयास निवेदित है,कृपया समीक्षा करें-
त्याग,प्रेम अवतार श्याम
प्रेम रीति तो सिखाइये।
बृज-गोपियों सा त्याग रस
कलिकाल में भी डालिये।।
लोक-हित छोड़ा मंजु बृज
समोद मथुरा को धाए।
बही अश्कों की धार,जब
मेघ भावना के छाए।
तुमको भी जीता जिसने
हमें नीति वह सिखाइये।।
ज्ञान में ही मग्न ऊधौ
प्रेम भाव थे न मानते।
पर भक्त के विकार कृष्ण
चुन-चुन सब हैं निकालते।
उद्धव सम परोक्ष ज्ञान
अब हम सबको दिलाइये।।
है प्राप्ति में सुसुप्त प्रेम
विरह में जाग जाता है।
प्रेमी,इस वियोग में तो
ठौर-ठौर दिख जाता है।
डाँट मारी गोपियो ने
मत ये योग सिखलाइये।।
यदि कण-कण समाया श्याम,
उन्हें गिनके बताइए।
हम एक से ही मर मिटीं
वाणी-बाण न चलाइये।
जो ज्ञान को भी मात दे
वो ही प्रीति सिखलाइये।।
बृज-गोपियों सा त्याग-रस...
-विन्दु
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण !
latest postएक बार फिर आ जाओ कृष्ण।
जय श्री कृष्ण!
Deleteधन्यवाद आदरणीय
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें,सादर!!
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteशुक्रिया रंजन जी!
Deleteअहा! सुन्दर..
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय अमृता तन्मय जी!
Deleteआदरमीय राजेन्द्र जी आपका आभार!
ReplyDeleteजन्माष्टमी की ढेरों शुभकामनाएं
सादर
बहुत ही सुन्दर रचना ।
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