तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से,
ऐ परिंदे!
हिलोर आ जाती है
स्थिर,अमूर्त सैलाब में,
छलक जाता है
चर्म-चक्षुओं के किनारों से
अनायास ही कुछ नीर.
हवा दे जाते हैं कभी
ये पर तुम्हारे
आनन्द के उत्साह-रंजित
ओजमय अंगार को,
उतर आती है
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,
अमृत की तरह.
बिखरते हैं जब,
सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग
तेरे आ बैठने से
चेतना फूँकती है सुगंधी
जड़, जीर्ण और...अचेतन में.
बोल,भावों के विहंगम!
है कहाँ तेरा घरौंदा?
कण-कण में या हृदय में,
या फिर दूर...
यथार्थ के उस यथार्थ में
जो,कई बार अननुभूत रह जाता है.
-विन्दु
ऐ परिंदे!
हिलोर आ जाती है
स्थिर,अमूर्त सैलाब में,
छलक जाता है
चर्म-चक्षुओं के किनारों से
अनायास ही कुछ नीर.
हवा दे जाते हैं कभी
ये पर तुम्हारे
आनन्द के उत्साह-रंजित
ओजमय अंगार को,
उतर आती है
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,
अमृत की तरह.
बिखरते हैं जब,
सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग
तेरे आ बैठने से
चेतना फूँकती है सुगंधी
जड़, जीर्ण और...अचेतन में.
बोल,भावों के विहंगम!
है कहाँ तेरा घरौंदा?
कण-कण में या हृदय में,
या फिर दूर...
यथार्थ के उस यथार्थ में
जो,कई बार अननुभूत रह जाता है.
-विन्दु
बहुत ही प्रभावशाली रचना है आपकी. बहुत अच्छी लगी.
ReplyDeleteआपका बहुत आभार रंजन जी।
Deleteसादर
ऐसी सुन्दर रचना कभी-कभी ही मिलती है। साधुवाद।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय निकोर सर।
Deleteआपकी उपस्थिति से आत्मबल मिला।
सादर
कोमल भाव लिए सुन्दर भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार आदरणीय राजेन्द्र प्रसाद जी
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