Wings of fancy

Thursday, January 24, 2013

गाँवों का खोखला उत्थान

विश्वपटल पर हमारे देश की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप मे है. गाँवों को भारत के पैर कहा जाता है. हम गाँवों के बहुआयामी उत्थान के लिए अग्रसर भी हैं चाहे वह सड़कों,नहरों,शिक्षा,स्वास्थ्य कोई भी क्षेत्र हो। प्रगति के आंकड़े वन्दनीय ऊंचाईयों को छू रहै हैं,लेकिन कई बार गाँव के दावे पर आंकड़े खोखले सिद्ध हो जाते हैं. वैश्विक फलक पर देश के पैरों का ढिंढोरा तो खूब पिटता है परन्तु पैरों का लकवा और पोलियो किसी के संज्ञान मे नही है, परिणाम लड़खड़ाती गति हमारे समक्ष है. सुश्री मायावती के कार्यकाल में दलितों का आत्मविश्वास भले बढ़ा हो, राजधानी लखनऊ मे चमचमाती सड़कों और सिसज्जित बाग-बगीचों से चमक भले आ गई हो परन्तु भ्रष्टाचार और अफसरों की मनमानी से गाँवों की हालत और खस्ता होती चली गयी। पिछली पंचवर्षी योजना मे 80,000 करोड़ से ज्यादा धनराशि का आनंटन ग्रामीण विकास के लिए किया गया था,लेकिन सड़क नेटवर्क,रोजगार,जल,विद्युत आपूर्ति मे अभी भी सैकड़ों गाँव की हालत बदतर है।राहुल गाँधी ग्रामीण युवाओं को आकर्षित जरूर कर रहें हैं पर उन्हे विकास ऐर रचनात्मकता से जोड़ने का कोई सार्थक प्रयास नही दिखा।ग्रामीणों के साथ खटिया पर बैठ उनका कुछ प्यार तो पा ही लिया है। प्राथमिक शिक्षा,देश की भावी रीढ़,जर्जर होती जा रही है। प्रलोभनों की तो भरमार है लेकिन हाथ लगती है तो घटिया मिडडे मील के साथत अधकचरी शिक्षा। 'प्रथम'(प्राथमिक शिक्षा पर काम करने बाली संस्था) के नवीनतम् आंकड़ों के अनुसार लगभग 56% बच्चे कक्षा 1 के स्तर का पाठ नहीं पढ़ पाते हैं।जहाँ वर्ष 2010 में कक्षा 5 के लगभग 71%बच्चे दो अकों का जोड़-घटाना कर लेते थे वहीं 2012 में यह प्रतिशत घटकर 53 पर पहुंच गया है। विद्यालयों में औपचारिकताएं सभी दुरुस्त हैं क्योंकि उनका लेखा-जोखा देना है,शिक्षा का स्तर कौन देखने आयेगा,इसलिए समय बचा तो पढ़ा दिया अन्यथा अभिलेखील काम में ढील करके वेतन के सा रिस्क कौन लेगा । वस्तुत: विकास की बयार का रुख ही कुछ ऐसा है कि हम ग्रामीण भी अपनी उन्नति का मानक मोबाइल,वाह्य व्यक्तित्व/साज-सज्जा और विलासिता मानने लगे हैं. भूलते जा रहे हैं कि आर्थिकी रीढ़ तो कृषि है,उद्यम ही सर्वसाधन है. गाँवों का शहरीकरण जिस गति से हो रहा है उससे कही तीव्र गति से मानसिकता बदल रही है वो भी पश्चिमी तर्ज पर. विकास की धुरी कहीं भी घूमती हो पर विश्व का मूल आधार प्राथमिक उत्पादों पर हा टिका है. जिनके लिए हमे कृषि/प्रकृति और उद्यम का सहारा लेना ही पड़ेगा. परन्तु कृषि के साथ उद्यम करना परम्पराओं का अनुसरण करना तो वर्तमान में पिछड़ेपन का कारण और विकास का अवरोधक माना जाने लगा है. गाँवों के अवलोकन के बाद देश के लिए 'लोकत्न्त्रिक' शब्द मिथ्या सा लगने लगता है. वहाँ बोट बहुत से लोग डालते हैं,तो इस लिए कि 'सब डालते हैँ' न कोई विकास की अपेक्षा न किसी सुविधा की आशा. विपन्नता,अपराध,खुराफात गाँवों के अभिन्न अंग हैं. आज भी,जब हम आंकड़ें देख गौरवान्वित होते हैं, गलियारे कीचड़ से डूबे हुए हैं. मनरेगा की अपूर्व सफलता के बाद भी कोनों मे जुएं के फड़ प्राय: लगे रहते हैं-खाली हैं क्योंकि उनके पास 'जाब कार्ड' नहीं है,खेती मे जितना पैदा होता है उससे ज्याद लग जाता है,डी.ए.पी. दुगने दाम की मिलने लगी है,उन्नत बीज भी तो उतना महंगा है. निम्न मूल्यों पर राशन उपलब्ध होने पर भी कई परिवारों मे एक बार ही भोजन बनता है,क्योंकि राशन के लेने के लिए राशनकार्ड ही नही है. कितनी कन्याएं कन्या विद्याधन ,साइकिल आदि सुविधाओं से वंचित हैं. अब कोई कहे कि ये BPL सूचियां आदि सब मिथ्या है क्या! तो बिलकुल नहीं,इन सुविधाओं और कार्डों का लाभ तो वो धनाड्य जन ले रहे हैं जो जीवन तो विलासिता का जी रहे हैं परन्तु अभिलेखों मे निर्धनतम् बने हुए हैं. ये तथ्य गौढ़ हैं और हम खुश हो रहे हैं देख के कि हर चरवाहे,मजदूर,जुआंरी,किशोर,प्रौढ़ की जेब मोबाइल से झन्कृत हो रही है. इस खोखले उत्थान के बारे मे क्या कहा जाए,मेरी समझ से परे है. मैं कोई कपोल कल्पत बात नहीं कर रही बल्कि देखा हुआ और जिया हुआ वर्णित कर रही हूं. मेरा अपना गाँव-साखिन,वि.क्षे.-टड़ियावां,पड़ोस के गाँव बरबटापुर,ढपरापुर,पहाड़पुर,गोपालपुर मुझे यही अनुभव प्रदान करते हैं. सुने और पढ़े आंकड़ों पर विश्वास कैसे कर लूं? वन्दना तिवारी,साखिन

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