आजाद हूं...
जिन्दगी को क्या राह दूं?
खो दिया है खुद को ही,
पग भूमि से ही उठ गये।
लुट रही है रोज अस्मत.
इतने विकसित हो गये।
खो जाउं मैं भी आवेश में,
या बदलाव को अंजाम दूं?
आजाद हूं...
सहमे हुए हैं साये,
यूं आजादी की अंगड़ाइयां।
क्या मश्विरे, क्या सरहदें,
उत्थान की पुर्वाइयां हैं!
क्या अनुसरण उस इतिहास का,
अब तो ये सब रूढ़ियां।
गिर जाएंगे भी यदि खड्ड मे,
सैलाब सड़क पर आएगा ही।
उस ज्वार की तीव्रता से
क्या दरारें जिगर की भर पाएंगी?
बचालूं खुद को गिरने से
या आक्रोश को हवा दूं?
आजाद हूं पर जिन्दगी को क्या राह दूं...
बहुत खूबसूरत!
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना...
ReplyDeleteगहन भाव लिए..
अनु
बहुत शुक्रिया अनु जी.आपकी रचनाएं पढ़ के बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeletebahut achchhi rachna..
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबिखरे जज्बातों को समेट कर बहुत ही खुबसूरती से सजा दिया..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआप सभी को सादर धन्यवाद!
ReplyDeleteभावपूर्ण प्रस्तुति.
ReplyDeleteशुक्रिया सक्सेना महोदय!
ReplyDeleteएक ऐसी नज़्म , जिसे पढ़ते हुए मैं कहीं खो सा गया हूँ . शब्द भीतर तक कहीं छु से गए है......
ReplyDeleteदिल से बधाई स्वीकार करे.
विजय कुमार
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